लड़ो
लड़ो वापस जाते हुए सुख से
अड़ जाओ उसके रास्ते में ज़िद करते
पैर पटककर—
बाप की पतलून खींचकर मेले में कुछ देर और ठहर
पसन्द का खिलौना ढूँढ निकालने की दृढ़ जिज्ञासा लिए
बचपन की तरह

लड़ो
लड़ो असमय आए दुःख से
रोक लो रास्ता आलिन्द पर ही
किसी बहुरूपिए की घुसपैठ से बचाते अपनी जीविकाओं का निलय
फटकार दो उसे
न रहो मान-मनौती कर लौट जाने की अनुकम्पा में लीन
कहीं वह धीरे-धीरे मन की चौहद्दी का चक्कर लगाते
निरुपचार उरःक्षत न हो जाए

लड़ो
लड़ो बुझती हुई आशाओं से
फूँक मार-मारकर उठाते रहो दीपशिखा उनकी
खड़े हो जाओ दोनों हथेलियाँ ले
घेराबन्दी कर सुरक्षा में उनकी
हताशाओं के झँझावात में उत्तरदेय कोई नहीं होता
एक छोटी लौ के प्रकाश से भी जगी रह सकती हैं इच्छाएँ

लड़ो
लड़ो अनहोनियों के होनेपन से
गिरते हुए आसमान को सम्भालो
फटती हुई ज़मीनों में भर दो अपने सामर्थ्य का कोलतार
अपनी जेब खँगालो
एक सिक्का बचा हुआ है
कई समस्याओं के अकेले समाधान की तरह
दो पीढ़ियों के बीच का एक पुल हो तुम
जिसकी आवश्यकता सदैव अपेक्षित रहेगी

लड़ो
लेकिन समय से मत लड़ो
वह क्षमा का पात्र है
उसे क्षमा कर दो
उस पर कई हत्याओं का भार है।

आदर्श भूषण की कविता 'वे बैठे हैं'

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आदर्श भूषण
आदर्श भूषण दिल्ली यूनिवर्सिटी से गणित से एम. एस. सी. कर रहे हैं। कविताएँ लिखते हैं और हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है।