जब भी सोचा
अपनी किसी कविता में
तुम्हें लिखूँ
तुम्हारी और मेरी भिन्नता
क़लम और काग़ज़ के बीच
एक बाधा बन खड़ी रही

कोई भी विचार
जो ख़ुद को
तुम-सा सोचकर नहीं लिख पाया
निरर्थक लगा

कोई भी पंक्ति
जो एक वृत्त की परिधि में
ढलती नज़र नहीं आयी
अधूरी छोड़ दी

मुझे और तुम्हें
पृथक करता अल्पविराम
दर्पण का रूप न ले सका
तो शब्दों के बीच के ठहराव
नकार दिए मैंने

मैं अपनी परिभाषा
तब तक बदलता रहा
जब तक मेरा कथ्य
तुम्हें परिभाषित करते किसी छंद के साथ
कोरस न गाने लगे

यदि वार्तालाप
दो हृदयों में होता सम्भोग है
तो इस कविता के
सारे उपमान
और सभी प्रतीक
तभी सार्थक होंगे
जब तुम्हारे और मेरे
मन के भाव
समलैंगिक हों…।

पुनीत कुसुम की कविता 'आधुनिक द्रोणाचार्य'

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कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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