दर्पण के सामने देर तक बैठने के बाद भी उसका मन नहीं भरा। मेक-अप की हल्की-सी पर्त एक जादू-सा कर गई थी, और वह अपने ही प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हुई जा रही थी। कौन कहेगा कि वह पचास को छू रही है। उसका कुछ भी तो नहीं बदला है। उम्र के साथ चेहरा थोड़ा भर गया है, बालों में इक्का-दुक्का रुपहले तार झलमला रहे हैं, बस, पर इन बातों ने तो उसके सौन्दर्य को गरिमा ही प्रदान की है।
अब तो सारा दिन ही जैसे भागम-भाग में बीतता है। बिन्दी लगाने भर को वह आईने में झाँक पाती है। नहीं तो एक समय वह भी था जब वह घण्टों आईने के सामने बैठकर निहारा करती थी। उन दिनों कॉलेज भर में उसके रूप के चर्चे थे। इसी रूप जाल ने तो गिरीश को बाँधा था, इसी के बल पर तो वह बिना किसी दान-दहेज के इतने बड़े घर में आ गई थी।
बड़ा घर! याद आते ही उसका मन ऐसा कसैला हो उठा जैसे दाँतों नीचे कोई कड़वी चीज़ आ गई हो। बीते दिनों की स्मृतियों ने कोई मधुर रागिनी नहीं छेड़ी, बल्कि मन में एक टीस-सी उठी। वह एक झटके के साथ उठी और कपड़ों की अल्मारी के सामने जाकर खड़ी हो गई। बेकार की बातों से वह इस समय अपना अच्छा-भला मूड बिगाड़ना नहीं चाहती थी।
साड़ी का चुनाव वाक़ई एक समस्या थी। अपनी रोज़मर्रा की साड़ियों की ओर तो उसने झाँका भी नहीं। साल-दर-साल उन्हें ही पहनते वह ऊब चुकी थी। कुछ साड़ियाँ जो समारोहों के लिए ख़रीदी गई थीं, पर हर कपड़ा हर मौक़े पर खिलता थोड़े ही है। साड़ी ऐसी हो जो अवसर विशेष के अनुकूल हो, और उसकी सौम्य, सोबर इमेज भी बनाए रखे।
कपड़ों को उलट-पलट करते हुए उत्तरा को निशि बेतरह याद हो आयी। वह होती तो क्या उसे इतना सोचना पड़ता। वह तो पता नहीं कब से मुनासिब-सी साड़ी, मैचिंग चूड़ियाँ, पर्स, चप्पलें— सबकुछ निकालकर रख चुकी होती। उसके रहते मजाल थी कि मम्मी उल्टा-सीधा पहनकर या बेतरतीबी से बाल लपेटकर बाहर चली जाएँ।
कपड़े ही नहीं, उसका तो घर की हर समस्या पर अधिकार था। कोई भी काम उस पर छोड़कर निश्चिन्त हुआ जा सकता था। उसके रहते घर कैसा भरा-भरा-सा लगता था। इस तरह द्वीपों में बँटा हुआ नहीं था।
उत्तरा को पी.एच.डी. मिली थी तब निशि मुश्किल से सोलह की रही होगी। स्टॉफ़ मेम्बर्स पार्टी के लिए इसरार कर रहे थे। उत्तरा ने सोचा था— वहीं कैंटीन में कुछ खिला-पिला देगी। पर निशि अड़ गई—
“कॉलेज में क्यों मम्मी, क्या तुम्हारा घर नहीं है?”
और पार्टी का सारा प्रबन्ध उसने अकेले ही किया। खाना तो ख़ैर बनवाया गया था, पर प्लेंटें, चम्मच, नैपकिंस, बर्फ़, यहाँ तक कि पान-सुपारी और ज़र्दे की व्यवस्था भी उसने इतनी सुघड़ता से की थी कि सब चकित रह गए। लोग अब फिर पार्टी माँग रहे हैं, पर अब उत्तरा की हिम्मत टूट गई है।
यों कहने को तो घर में आशु भी है पर..
“आशु!”
उसने आवाज़ दी। पर जैसा कि वह जानती थी कोई जवाब नहीं आया। आजकल तो वह बस अपने पापा के आसपास ही मण्डराया करती है। निशि भी थी तो आशु उसके साथ लगी रहती थी। उसकी शादी क्या हुई, दोनों ही लड़कियाँ हाथ से निकल गईं।
“आशु!” इस बार आवाज़ थोड़ी ऊँची थी और तल्ख़ भी।
“क्या है मम्मी?” मूर्तिमान बेज़ारी बनकर आशु सामने आकर खड़ी हो गई।
उसके लहजे से उत्तरा का पारा चढ़ गया। वह भूल-सी गई कि क्यों बुलाया था। रूखे स्वर में पूछा, “तुम अभी तक तैयार नहीं हुई। चलना नहीं है क्या?”
“कहाँ? …ओह! आज आपका फ़ंक्शन है न। ..सॉरी मम्मी, मेरा जाना नहीं हो सकेगा।”
“क्यों?”
“पापा को बुख़ार है।”
“कोई नयी बात है?”
“नयी न सही, पर ऐसी स्थिति में उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ा जा सकता न।”
“दो घण्टे महादेव उनके पास बैठ सकता है।”
“सो तो है, पर मम्मी, वहाँ सारी साहित्यिक बातें होंगी। मेरी समझ में तो कुछ आएगा नहीं, वैसे ही बोर हो जाऊँगी।”
“ठीक है।” उत्तरा ने विषय समाप्त करते हुए कहा।
आशु जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी। तुरन्त पलटकर चल दी। उत्तरा देर तक उसे देखती रही। इन दिनों वह एकदम अपनी माँ की प्रतिकृति सी बनती जा रही है। पर मन से कितनी दूर फिंक गई है। इसके विपरीत निशि एकदम अपने पापा पर गई है। पर बचपन से ही वह मम्मी की बेटी रही है। पिछले दिनों से तो वह बेटी से भी ज़्यादा सखी बन गई थी। कोई भी बात उससे निस्संकोच कहकर वह हल्का हो लेती थी। निशि बड़ी बहन की तरह से सान्त्वना देती, धीरज बँधाती। कभी-कभी तो उसका पक्ष लेकर पापा से भिड़ भी जाती थी।
शादी होते ही लड़कियाँ कितना बदल जाती हैं। सारी माया-ममता पता नहीं कहाँ खो जाती है। अब तो बस निखिल और मंटू—निशि की दुनिया इन दोनों में सिमटकर रह गई है।
“मम्मी!” दुबारा अपनी बेज़ारी जताते हुए, आशु सामने खड़ी हो गई थी, “वो लोग आ गए हैं।”
“अरे, चार बज गए क्या?” उसने चौंककर घड़ी देखी, “आशु, उन्हें बिठाओ, पानी-वानी पिलाओ। मैं बस आ ही रही हूँ।”
अपने को आख़िरी बार आईने में देखने के लिए वह मुड़ी तो उसमें आशु का खिंचा-खिंचा-सा चेहरा ही परिलक्षित हुआ। उत्तरा जल-भुनकर रह गई।
“मेरे मेहमानों को एक गिलास पानी पिलाने में इसका जान जाती है। पापा के लिए हर आधा घण्टा बाद चाय बनाते समय इसके हाथ नहीं थकते।” वह बुदबुदायी पर सारा ग़ुस्सा भीतर ही भीतर पी गई। इस समय वह अपना मन एकदम प्रसन्न रखना चाहती थी।
“हलो, एवरीबडी।” उसने बड़े ख़ुशनुमा अन्दाज़ में कहते हुए हॉल में प्रवेश किया। पर वहाँ सतीश मेहता अकेला बैठा अख़बार पढ़ रहा था। सामने ट्रे में पानी से भरा गिलास अनछुआ रखा था।
“चलो!” उसने कहा।
“बाय आल मीन्स, मैडम।” कहते हुए वह खड़ा हो गया, पर एकदम ठिठक गया।
“अंकल नहीं चलेंगे?”
दरवाज़े तक पहुँच गई थी उत्तरा, पर देखा कि सतीश अभी वहीं खड़ा है।
“नहीं, अंकल नहीं चलेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है।” स्वर को यथासाध्य तल्ख़ बनाते हुए उसने कहा।
“और आशुजी?” सतीश ने अस्फुट किन्तु उत्सुक स्वर में पूछा।
“नहीं वह कैसे आ सकती है? उनके पास भी तो कोई चाहिए। वैसे तो मेरा जाना भी मुश्किल ही था, पर अब तुम लोगों ने इतना बड़ा आयोजन कर रखा है और…।” यह कहते हुए वह खटाखट सीढ़ियाँ उतरकर गाड़ी के पास जाकर खड़ी हो गयी। मेहता को मजबूरन साथ आना ही पड़ा। पर उसके लिए दरवाज़ा खोलते हुए, अपनी सीट पर बैठते हुए और गाड़ी स्टार्ट करते हुए उसकी ऑंखें बराबर बन्द दरवाज़े पर खिड़कियों के परदों पर लगी रहीं। पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
बेचारा सतीश! उत्तरा को उस पर दया हो आयी, बेचारा जान छिड़कता है आशु पर। पर वह लड़की है कि एक मिनट पापा को ऑंखों की ओट नहीं करना चाहती। साथ नहीं आयी न सही, पर गुडलक कहने दरवाज़े तक तो आ ही सकती थी।
“ग़ुस्सा तो उसके पापा पर आता है। ऐसे नाज़ुक मिज़ाज हैं कि हर पल किसी का ऑंचल थामे रहना चाहते हैं। पाँच बहनों में अकेले भाई हैं— ख़ूब लाड़-प्यार पाया है। अम्माँजी ने तो एकदम ऑंख की पुतली की तरह सहेजा है उन्हें। तभी तो यथार्थ की धरती पर पैर रखते ही उनका दम फूल जाता है।”
जिस बीमारी का आशु इतना हौआ बना रही है उसकी नब्ज़ निशि ने ख़ूब पकड़ ली थी…
“कुछ नहीं मम्मी, यह सब जॉब सिकनेस है। ज़िम्मेदारियों से भागने के बहाने हैं। इन्हें सारे झँझटों से मुक्ति दे दीजिए, फिर देखिए इन्हें कुछ नहीं होगा।”
बात एकदम सही थी—चाहे बिजली का बिल भरना हो या हाउसटैक्स, बच्चों का एडमिशन करवाना हो या खेत से गेहूँ लदवाना हो—गिरीश को कल्पना से ही बुख़ार होने लगता। बुख़ार न आता तो पीठ अकड़ जाती या सिर दर्द से फटने लगता। बच्चों की हारी-बीमारी में भी कभी उनका सहारा न मिला। निशि की सगाई के समय तो वे अस्पताल में ही भरती थे।
बच्चों की दादी जब तक रहीं, बेटे की बीमारी में घर सिर पर उठा लेतीं। उनकी इस हाय-तौबा में मूल प्रश्न जाने कहाँ बिला जाता। बहू को बार-बार कोसतीं, “अकेला आदमी, बेचारा कहाँ तक बोझा ढोता फिरेगा, एक लड़का ही अगर हो जाता…।”
यह बात वे कुछ इस अन्दाज़ में कहतीं मानो बेटा होता तो सीधा झूले से उतरकर बाप का हाथ बँटाने पहुँच जाता।
अम्माँजी की मृत्यु के बाद तो गिरीश एकदम जैसे निराश्रित हो गए। पहले तो उन्होंने उत्तरा का सहारा लेना चाहा। पर वैसी सम्वेदनशील सेवा वह कैसे करती? कब करती? आख़िर बच्चे भी तो उसी को पालने थे। नौकरी भी अब उसके लिए शौक़िया नहीं रही थी। वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता बन गई थी। बड़ा घर मात्र एक छलावा था। सारे सब्ज़ बाग़ दूर के ढोल निकले। वकालत की एक तख़्ती ज़रूर टँग रही थी दरवाज़े पर ताकि कोई यह न कहे कि निठल्ले हैं, बीवी की कमाई खाते हैं। शेष तो बस उत्तरा ही जानती है, या उसका ईश्वर।
पत्नी से निराश होकर अब उन्होंने आशु का दामन थाम लिया है। उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि इस तरह वे लड़की को तबाह कर रहे हैं। पता नहीं कैसे उसके मन में यह भय बैठ गया है कि उसकी शादी होते ही पापा एकदम अकेले पड़ जाएँगे।
अकेलापन क्या इतना भयानक होता है? आख़िर उत्तरा भी तो जी रही है। वह तो बरसों से भीड़ के बीच अकेलापन झेल रही है। उसने तो कभी शिकायत नहीं की।
“मैडम!”
वह जैसे हड़बड़ाकर तन्द्रा से जागी। गाड़ी मछली की तरह फिसलती हुई कब कॉलेज पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चला। पोर्च में उसके कुछ कनिष्ठ सहयोगी और विभाग के छात्र-छात्राएँ स्वागत के लिए खड़े थे।
गाड़ी से उतरते समय उसकी मनःस्थिति बड़ी अजीब-सी थी। अपने ही कॉलेज में इस तरह मेहमान बनकर आना उसे अटपटा लग रहा था। वह तो बार-बार मना करती रही, पर बच्चे नहीं माने। उसका गौरव, उसका सम्मान जैसे सबका हो गया था। इसे वे कैसे व्यर्थ होने देते।
यह सब कुछ इतना अनपेक्षित था कि उत्तरा स्वयं हैरान रह गई थी। वर्षों के अध्ययन और परिश्रम के बाद उसने एक भारी-भरकम पुस्तक लिख डाली थी— ‘भारतीय नारी की सामाजिक चेतना : उदय और विकास’।
बड़ी मुश्किल से तो वह प्रकाशक जुटा पायी थी। उसने उस समय बस यही आशा की थी कि शिक्षा मन्त्रालय द्वारा ख़रीद ली गई तो पुस्तक कॉलेज के पुस्तकालयों में पहुँच जाएगी। चार लोग इसे पढ़ेंगे तो उसका श्रम सार्थक हो जाएगा। पर आश्चर्य! पुस्तक तो अकादमी पुरस्कार जीत लायी।
उसे तो सुनकर कानों पर विश्वास ही नहीं आया था। उसके छात्र जगत में तो आनन्द की लहर दौड़ गई थी। पुरस्कार समारोह तो राजधानी में अगले महीने होना था। पर उन लोगों ने कॉलेज में उससे पहले ही एक सम्मान समारोह आयोजित कर डाला।
उसे हमेशा अपने विद्यार्थियों से इतना आदर और स्नेह मिलता रहा है कि छात्र अनुशासनहीनता की पुकार मचाने वाले उसके सहयोगी अक्सर उससे ईर्ष्या करने लगते हैं।
फ़ैकल्टी का वह छोटा-सा हॉल बड़े कलात्मक ढंग से सजाया गया था। हॉल में प्रवेश करते ही स्वयं प्राचार्य ने उठकर उसका स्वागत किया तो वह संकोच से गड़ ही गई।
उसे पहले तो फूल-मालाओं से लाद दिया गया। फिर भाषणों का दौर प्रारम्भ हुआ। छात्र तो उसकी इस उपलब्धि पर गद्गद् थे ही, पर कुछ सहकर्मियों ने भी जब उसकी प्रशंसा के पुल बाँध दिए तो उसे सुखद आश्चर्य हुआ। प्राचार्य महोदय ने भी दो शब्द बोले। उत्तरा के कारण उनका यह क़स्बाई कॉलेज देश के नक़्शे पर आ गया था। प्रमुख अतिथि थे जिलाधीश महोदय। उसे सम्मान का प्रतीक वीणापाणि की मूर्ति भेंट करते हुए उन्हें भी औपचारिकतावश स्तुति में दो शब्द कहने ही पड़े।
वह सुनती रही और सोचती रही। काश! आशु यहाँ होती, उसके पापा होते। वे लोग ज़रा देख तो लेते कि घर के बाहर उसे कितनी इज़्ज़त मिलती है, प्यार मिलता है।
पर वे यहाँ आते ही क्यों। पत्नी की गौरव-गाथा निस्पृह भाव से सुनने की सामर्थ्य उनमें कहाँ है। तभी न बुख़ार हो आया है।
उस दिन जब कुछ लोग यह सुसम्वाद लेकर घर पहुँचे थे, तब भी तो वे सहज भाव से उसे झेल नहीं पाए थे। कैसी रोनी-सी आवाज़ में बोले थे, “भई, हमने तो उन्हें पूरी स्वतन्त्रता दे रखी है। जितना समय मिलता है, अपने विषय को दो। घर-बार की चिन्ता छोड़ दो। उसे हम सम्भाल लेंगे। अपन कोई बड़े विद्वान नहीं हैं। बस इतना योगदान दे सकते हैं।”
उनके हर शब्द से झाँकते हीनताबोध ने उसे उतना नहीं कचोटा जितना उनके झूठ ने। मन हुआ, सबके सामने उन्हें बेनक़ाब कर दे। बता दे कि वे कितना घर-द्वार देखते हैं पर चुप बनी रही।
कभी-कभी सुखी गृहस्थी का नाटक भी कितना ज़रूरी हो जाता है।
इस समय भी वह प्रसंग याद आते ही उसका मन फुफकार उठा। सम्मान की सारी ख़ुशी, सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। रात-भर जागकर एक आलेख तैयार किया था। पर बोलने के लिए खड़ी हुई तो एक भी शब्द याद नहीं आया। पहली बार काग़ज़ की ज़रूरत महसूस हुई। सुनने वालों ने समझा भाव-विह्वल हो जाने से उसकी वाणी अवरुद्ध हो गयी है। नहीं तो वह साक्षात सरस्वती है। लौटते समय आधा दर्ज़न लोग साथ थे। फूल-मालाएँ और भेंट सामग्री उन्हीं के हाथ में थी।
दरवाज़ा वैसा ही बन्द था। चलते समय न तो किसी ने विदा किया था, न वहाँ अब कोई स्वागत में खड़ा था।
अब चलेंगे मैडम! किसी ने कहा तो लगा मन पर हथौड़े की चोट पड़ी है। इतने बड़े हंगामे के बाद ये लोग उसे एकदम अकेला करके चले जाएँगे? कल्पना से ही वह सिहर उठी।
“ऐसे कैसे चले जाओगे?” उसने कहा, “एक-एक कप कॉफ़ी तो पीते जाओ।”
और फिर उसने दरवाज़े की घण्टी ज़ोर से दबा दी। इतने ज़ोर से कि उसकी आवाज़ से सन्नाटे की धज्जियाँ उड़ गईं।
अरुण कमल की कविता 'तुम चुप क्यों हो?'