‘Santwana’, a poem by Saquib Ahmed

सत्ता ने निर्लज्जित अट्टहास के साथ
आबोहवा में घोल दिया है
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ज़हर

भूख, प्यास, बेरोज़गारी अब कोई मुद्दा ही नहीं
हत्या, बलात्कार, हिंसा अघोषित राजधर्म
जब परमसत्ता भी दुबक बैठा है किसी ब्लैक होल में
और व्यस्त है अप्सराओं के नाच देखने में
तब मैं तुम्हें नहीं दूँगा कोई सांत्वना

धर्मनिरपेक्षता महज़ ख़याली पुलाव
साम्प्रदायिकता अपने उत्थान पर
गाँधीवाद अतीत की जुगाली
हिटलरवाद सत्ता पर विराजमान
इस आदर्श क्रूर समय में
मैं तुम्हें नहीं दूँगा कोई सांत्वना

वेदनाओं के शिखर पर जन-गण-मन
चाहे लहूलुहान हाथों से सांकल बजाओ
ऐड़ी रगड़ो या पटको सिर
यह पत्थर की मूरत जो मुख पर मुस्कान लिए है
नहीं देगा कोई उत्तर
पहले ही कहा है- ‘मैं तुम्हें सांत्वना नहीं दूँगा!’

मैं बताता हूँ तुम्हें वेदनाओं से मुक्ति का सरल मार्ग

एकत्रित करो तनिक साहस, और
निकल पड़ो अपने नाख़ूनों को तेज कर

सत्ताधीश के महल की ओर!

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