‘उस दुनिया की सैर के बाद’ से

अपने ही रचे को

पहली बरसात के साथ ही
घरों से निकल पड़ते हैं बच्चे
रचने रेत के घर

घर बनाकर
घर-घर खेलते हुए
खेल ही खेल में
मिटा देते हैं घर

अपने ही हाथों
अपने ही रचे को मिटाते हुए
उन्हें नहीं लगता डर

सुनो ईश्वर!
सृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो—
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार?

रचता हुआ मिटता

जितना रचना है
उतना मिटना भी है शायद

यह अलग बात है
रचता हुआ मिटता
है नहीं जो दिखता

दिखता जैसे अँखुआ
बनता लक़दक़ पेड़
लेकिन बीज फिर नहीं रह जाता

कुछ मिटाना ही
कुछ रचना है!

रचा तो रहा

मैं न सही
मेरी जगह
मेरा रचा तो रहा

चलो अच्छा है
इसी बहाने
मैं कुछ बचा तो रहा।

मेरी रची दुनिया मुझसे

बताओ मैं ऐसी क्यों हूँ?
मेरी रची दुनिया पूछती है मुझसे

दे सकता हूँ मैं चोर-उत्तर:
जैसी है दुनिया, वैसी ही तो रची है

लेकिन नहीं
देखी दुनिया को जब रचा मैंने
कुछ जुड़ा उसमें मेरा
जो और कहीं नहीं है
इसलिए मेरा है

मेरी है दुनिया मेरे जैसी!
अब कोई सवाल नहीं पूछती
मेरी रची दुनिया मुझसे!

यह जो बच रहा है

आंधी ही नहीं
आग भी बना समय

इतना कुछ उड़ जाने पर भी
इतना कुछ जाने पर भी

इतना-सा कुछ
यह जो बचा रहा है
सिर्फ़ इसीलिए
रचना में इतना ही सच रहा है!

साँवर दइया की कविता 'ख़बर करना मुझे'

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साँवर दइया
साँवर दइया का जन्म 10 अक्टूबर 1948, बीकानेर (राजस्थान) में हुआ। राजस्थानी साहित्य में आधुनिक कहानी के आप प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। पेशे से शिक्षक रहे श्री दइया ने शिक्षक जीवन और शिक्षण व्यवसाय से जुड़ी बेहद मार्मिक कहानियां लिखी, जो "एक दुनिया म्हारी" कथा संकलन में संकलित है। इसे केंद्रीय साहित्य अकादेमी का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार भी मिला।