‘Saraltam’, a poem by Puneet Kusum

मधुमक्खियों को जानते हैं हम
छत्तों में शहद बनाने के लिए,
क्या तुमने उन्हें कभी कोई और काम करते देखा है?

चींटियों की पंक्ति में से गर एक भी चींटी रास्ता भूल जाए
तो वे पंक्ति में बँधकर जो कुछ कर रही होती हैं
क्या वह काम पूरा हो पाता होगा?

जनवरी के घने गीले कोहरे में
सूरजमुखी के फूल-सा महसूस करना कौन चाहेगा?

पहाड़ों पर रहने वाले भी
पहली बारिश में न भीग पाते हों
तो एक कसक लिए घूमते होंगे ऋतु-भर

घड़ी से घण्टे की सूई गर नदारद हो
तो क्या सेकण्ड की सूई का दौड़ते रहना
प्रेरित कर पाता होगा
मिनट की सूई को चलते रहने के लिए

जिसको अंशों में पाकर ख़ुद को पूर्ण देख पाते हों
उसके किसी भी अंश के बँटवारे का
सबसे बड़ा हिस्सा
किसी और के पास जाते देख पाना
कुछ और नहीं तो निश्चित ही
संसार के सरलतम कार्यों में से तो नहीं है।

यह भी पढ़ें: पुनीत कुसुम की कविता ‘आधुनिक द्रोणाचार्य’

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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