भाषा सिंह की किताब ‘शाहीन बाग़ : लोकतंत्र की नई करवट’ उस अनूठे आन्दोलन का दस्तावेज़ है जो राजधानी दिल्ली के गुमनाम-से इलाक़े से शुरू हुआ और देखते-देखते एक राष्ट्रव्यापी परिघटना बन गया। यह किताब औरतों, ख़ासकर मुस्लिम औरतों की अगुआई में चले शाहीन बाग़ आन्दोलन का न सिर्फ़ आँखों देखा वृत्तान्त पेश करती है, बल्कि सप्रमाण उन पक्षों को उद्घाटित करती है जिनकी बदौलत शाहीन बाग़ ने बँधी-बँधायी राजनीतिक-सामाजिक सोच को झकझोरा, लोकतंत्र और संविधान की शक्ति का नए सिरे से अहसास कराया और उनके प्रति लोगों के भरोसे को और मजबूत किया। किताब राजकमल प्रकाशन के इम्प्रिंट सार्थक से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है एक अंश—

रिश्तों के नये डायमेंशन

यहाँ घरेलू रिश्तों ने भी बहुत अलग आयाम अख़्तियार किए और निश्चित तौर पर यह अलग शोध का विषय होना चाहिए। इसमें एक-दो बातें बेहद अहम हैं जिन पर ग़ौर करना बहुत ज़रूरी है। शाहीन बाग़ ने औरतों के औरतों से रिश्तों को एक नया डायमेंशन दिया। मर्दों के साथ रिश्तों-नज़रिये में तो बेहद अहम बदलाव आया ही। साथ ही, घरों के भीतर जो तब्दीली आयी, वह इतनी तेज़ थी कि हैरत में डालती है। बड़ा मक़सद किस तरह से छोटे-बड़े टकराव को सुलझाने या स्थगित करने में मददगार साबित होता है, यह शाहीन बाग़ के घर-घर में दिखायी दे रहा था।

मिसाल के तौर पर सास-बहू, ननद भौजाई, माँ-बेटी और इस तरह के तमाम रिश्ते जिनमें दबदबे का सन्तुलन बहुत अहम भूमिका निभाता है, इसने आन्दोलन के पटल पर दूसरा आकार हासिल कर लिया। अब ये पॉवर रिलेशनशिप सहयोगी रिलेशनशिप में तब्दील हो गए या इन्हें होना पड़ा, क्योंकि बिना एक-दूसरे के सहयोग के धरने में चौबीस घंटे की भागीदारी असम्भव थी। यह अपने आप में बहुत नायाब अनुभव था। धीरे-धीरे इसका असर दिखायी-सुनायी देने लगा। इन रिश्तों के बदले हुए समीकरणों की आहट औरतों की बातों में मिलने लगी।

थोड़े व्यंग्य के साथ चुहल भरे स्वर में फ़ातिमा शेख ने कहा, “अब तो घर पहुँचते ही वो (सास) चाय के लिए पूछती हैं। मन-ही-मन मैं तो फूल जाती हूँ, अल्लाह भी क्या दिन दिखा रहा है। कई बार वह गर्म पानी भी ग़ुसल (नहाने) के लिए तैयार कर देती हैं। बच्चों को खिलाकर लिहाफ़ में सुला देती हैं। ऐसा सुकून देता है ये नज़ारा कि आपको अल्फ़ाज़ में बयाँ नहीं कर सकती।”

इसी तरह की कहानियाँ सफ़ेद बालों वालियों के पास भी थीं। बूढ़ी बुज़ुर्ग भी कहती न थकती थीं कि धरना स्थल पर उनकी बहुएँ, बेटियाँ पारी बदलने के लिए जब आती हैं, तो थर्मस में गरम-गरम चाय और कई मर्तबा उबले अंडे भी साथ ले आती हैं। उन्होंने बाक़ायदा एक इंटरव्यू में कहा, “अब बहुएँ भी बेटियाँ जैसी हो गई हैं। घर-बाहर सब देख रही हैं। अपनी नींद हराम कर रही हैं, वतन के लिए। हम मदद नहीं करेंगीं तो कौन करेगा? हमने तो अपनी ज़िन्दगी थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे करके गुज़ार दी, लेकिन हमारी बहुओं-बेटियों और उनके बच्चों का जीवन दाँव पर लगा हुआ है।” यह कहते-कहते जब सरवरी का गला नम हो गया तो पास ही बैठी पोती ने बोतल से गुनगुना पानी निकालकर उन्हें दे दिया।

धरना स्थल एक विशालकाय घर में तब्दील हो गया था, जहाँ सब एक-दूसरे के लिए फ़िक्रमन्द नज़र आती थीं। कोई बच्चा खोये नहीं, कोई भटके नहीं, कोई भूखा न रहे! किसी की भी तबीयत ख़राब होती तो दूसरी उसे धरना स्थल में लगे मेडिकल कैम्प में ले जातीं। देखभाल का वहाँ पूरा इंतज़ाम था।

उम्र का फ़र्क़ या जेनरेशन गैप के सवाल भी ज़िंदा सवाल थे शाहीन बाग़ के। नौजवान औरतों के सामने तो यह दुनिया पहली बार खुली थी। इसे भी बेहद संजीदा ढंग से हैंडल किया, आन्दोलन का चेहरा बनी दादियों-नानियों और स्टेज से लेकर बाक़ी तमाम काम सम्भालनेवाली नौजवान औरतों ने।

इस बारे में मंच संचालन की टीम में शामिल, जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पूर्व छात्रा रितु कुमार ने बताया, “हम सबके लिए मंच को को-ऑर्डिनेट करने का काम बिलकुल नया था, इसलिए हमने शिफ़्ट बना ली थी। मैंने इससे पहले जामिया में एक दो-बार ही किसी कार्यक्रम में शिरकत की होगी, लेकिन ऐसा जमावड़ा और ऐसा जोश तो कभी नहीं देखा। शुरू-शुरू में तो बहुत ही मुश्किल था, मैं यहाँ किसी को जानती नहीं थी। बहुत ज़्यादा यहाँ के बारे में पता भी नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे आत्मविश्वास आता गया और कारवाँ बढ़ता गया।”

“यहाँ दादियों और नानियों के हौसले देखते ही बनते थे। वे सुबह-सुबह ही आ जाती थीं और हम कहते—क्या नानी, आँख खुलते ही आ गईं! फिर वे कहतीं, ‘नींद ही कहाँ आयी… सोचते रहे कब सूरज ऊपर खिसके और कब हम चलें। जाओ, तुम लोग आराम कर लो।’ फिर वे इंस्पेक्शन करने में जुट जातीं, कहाँ सफ़ाई करानी है, दरी झाड़नी है। सबको काम मिल गया था। साथ ही वे कहती जातीं, ‘हमें मिसाल पेश करनी है। ग़ुस्से पर क़ाबू रखना है… यह लम्बी लड़ाई है।’ बिलकिस दादी तो हमेशा कहती— ‘ज़बान और दिमाग़ बहुत हिफ़ाज़त से चलाना चाहिए, नहीं तो हमारे ही लफ़्ज़ हमारे ही ख़िलाफ़ दाग़ दिए जाएँगे। बड़े ही शातिर हैं हमारे हुक्मरान, पर हमें अपनी बात दूर तक पहुँचानी है।'”

“वैसे भी तमाम नानियों-दादियों का फ़ेवरेट डॉयलॉग था— ‘हमने बाल धूप में सफ़ेद नहीं किए हैं। राजनीति नहीं की तो क्या, झेली तो ख़ूब है। अपनी छातियों पर।'”

यह जो साझा नए और पुराने का, जवान जोश और सफ़ेद बालों के अनुभवों का रहा, उसने इस आन्दोलन को अलग मजबूती प्रदान की। नई व उम्रदराज पीढ़ी में यह दोस्ती सिर्फ़ दिल्ली के शाहीन बाग़ तक नहीं बल्कि देश-भर में फैले अनगिनत शाहीन बाग़ों में नजर आयी।

यह भी अपने आप में ऐतिहासिक रहा कि पुरानी पीढ़ी ने नई पीढ़ी को आगे आने से रत्ती भर भी नहीं रोका। उल्टे बुज़ुर्गवार बड़े फ़ख़्र से बतातीं— “ये देखो मेरी बहू, मेरी बेटी और उसकी भी बेटी बैठी हुई है।” वे तमाम पत्रकारों से भी पूरे आत्मविश्वास से बात करती थीं। अगर आप इन दोनों उम्र समूहों की बातों पर ग़ौर फ़रमाएँ, तो नज़र आएगा कि उनके तेवर में कोई अन्तर, कोई कमी नहीं थी। हाँ, बात करने के लहजे में, अन्दाज़ में फ़र्क़ आ जाता था। नानियाँ-दादियाँ सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुख़ातिब होतीं और कहतीं— “हम तुम्हारी माँ जैसी हैं। तुम यहाँ आओ और कम-से-कम हमारी बात तो सुनो। क्या तुम अपनी माँ की बात भी न सुनोगे? तुम पूरे देश के वज़ीरे-आज़म हो, तुम्हें हमारी भी सुननी पड़ेगी।”

सौ से ज़्यादा उम्र होने का गर्वीला दावा करनेवाली, लखनऊ के उज़रियाँव गाँव की हमीदुल निसां बेहद दिलकश अन्दाज़ में कहती हैं, “इनको (नौजवान औरतों को) हमसे और हमको इनसे हौसला मिलता है, वरना आप ही सोचिए, इस उम्र में मेरी जैसी सौ साल की बुड्ढी सड़क पर ही रहती क्या भला? (वह उज़रियाँव गाँव में धरना स्थल पर ही चौबीसों घंटे रहती थीं, क्योंकि उनके लिए घर जाना मुश्किल था।) यहाँ बैठकर हम सब देश को फिर से बाँटने की साज़िश को नाकाम करने की सोचते हैं। मैं तो बस रोटी-दूध ही खाती हूँ और इसमें जो ताक़त हैं, उसी के बल पर मोदी-शाह को कहती हूँ—हम इसी मिट्टी के हैं। हम यहीं जिये हैं, यहीं मरेंगे।”

इस तरह से उनकी बातें अधिकार वाली होती, लोकतंत्र की बुनियाद पर टिकी हुई। “चूँकि इस देश ने तुम्हें इतनी अहम सीट पर बैठाया है, लिहाज़ा तुम्हारा हमारे प्रति कोई कर्तव्य भी है।” वे अपने उम्र का कार्ड बख़ूबी खेलतीं और वतन पर दावेदारी को बिलकुल नए मुहावरों, नई शब्दावली में पेश करतीं।

दूसरी तरफ़, नौजवान औरतें संविधान की, संविधान की प्रस्तावना की दुहाई देते हुए अपने तीखे तर्कों के साथ सीएए को संविधान विरोधी बतातीं। वे असम में एनआरसी से जुड़े दर्दनाक क़िस्सों की परतें उधेड़तीं। वे बतातीं कि किस तरह से और क्यों जामिया सहित तमाम विश्वविद्यालयों को निशाने पर लिया जा रहा है। इनमें से कई नौजवान औरतें या तो किसी विश्वविद्यालय में पढ़ रही थीं या पढ़ चुकी थीं। कुछ ऐसी भी थीं, जिन्हें क़ायदे की शिक्षा लेने का मौक़ा नहीं मिला, लेकिन वे सब मौजूदा हालात से भली-भाँति परिचित थीं। यह भी साफ़ नजर आया कि उन्होंने बेहद कम समय में बहुत असरदार राजनीतिक तर्कों-विमर्शो से ख़ुद को लैस किया। शुरू के तक़रीबन आठ-दस दिन वे समूह में बैठकर इन सब पर खुलकर चर्चा करती थीं। वे नारे, संविधान, सीएए, एनआरसी के विभिन्न प्रावधानों पर बातें करतीं, समझदारी विकसित करतीं। हर जगह के नारे मिले हुए भी थे और अलग भी थे, वे इस तरह गढ़े गए थे कि स्थानीय सशक्तीकरण को दर्शाते थे। इस तरह, सब जगह जमकर लिखाई-पढ़ाई हुई। क्या लखनऊ, क्या देवबन्द, क्या पटना का सब्जीबाग़, क्या जयपुर, क्या हैदराबाद, क्या कोझिकोड… हर शहर, हर धरना स्थल पर नौजवान औरतों-मर्दों की छिपी या अधखुली सांस्कृतिक प्रतिभा का जो विस्फोट सामने आया, वह शाहीन बाग़ के आन्दोलन को सतरंगी आभा से नवाज़ता है।

मृणाल पांडे की किताब 'माया ने घुमायो' से एक कहानी 'प्रेम की ड्योढ़ी का संतरी'

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