अख़बारों की सुर्ख़ियाँ मिटाकर दुनिया के नक़्शे पर
अन्धकार की एक नयी रेखा खींच रहा हूँ,
मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
उलीच रहा हूँ।
मेरा डर मुझे चर रहा है।
मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफ़रत की बग़ल से उभर रहा है।
अपने दिमाग़ के आत्मघाती एकान्त में
ख़ुद को निहत्था साबित करने के लिए
मैंने गांधी के तीनों बन्दरों की हत्या की हैं।
देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
मैं अपनी ठण्डी माँसपेशियों को विदेशी मुद्रा में
ढाल राह हूँ।
फूट पड़ने के पहले, अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में उबाल रहा हूँ।
जरायम-पेशा औरतों की सावधानी और संकटकालीन क्रूरता
मेरी रक्षा कर रही है।
गर्भ-गद्गद् औरतों में अजवाइन की सत्त और मिस्सी
बाँट रहा हूँ।
युवकों को आत्महत्या के लिए रोज़गार दफ़्तर भेजकर
पंचवर्षीय योजनाओं की सख़्त चट्टान को
काग़ज़ से काट रहा हूँ।
बूढ़ों को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
चमड़े का मुहावरा सिखा रहा हूँ।
गिद्धों की आँखों के ख़ूनी कोलाहल और ठण्डे लोगों की
आत्मीयता से बचकर
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे की बग़ल में सो रही है
और मैं दुनिया के शान्ति-दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा हूँ।
अपनी आँखों में सभ्यता के गर्भाशय की दीवारों का
सुरमा लगा रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ एशिया में दाएँ हाथों की मक्कारी ने
विस्फोटक सुरंगें बिछा दी हैं।
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पिश्चम-कोरिया, वियतनाम
पाकिस्तान, इज़राइल और कई नाम
उसके चारों कोनों पर ख़ूनी धब्बे चमक रहे हैं।
मगर मैं अपनी भूखी अंतड़ियाँ हवा में फैलाकर
पूरी नैतिकता के साथ अपनी सड़े हुए अंगों को सह रहा हूँ।
भेड़िये को भाई कह रहा हूँ।
कबूतर का पर लगाकर
विदेशी युद्धप्रेक्षकों ने
आज़ादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है।
वह फिर हवा देने लगी है।
न मैं कमन्द हूँ
न कवच हूँ
न छन्द हूँ
मैं बीचोबीच से दब गया हूँ।
मै चारों तरफ़ से बन्द हूँ।
मैं जानता हूँ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
और न बैसाखी
मेरा ग़ुस्सा—
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है।
लन्दन और न्यूयार्क के घुण्डीदार तसमों से
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अंग्रेज़ी का 8 है।

Previous articleदिमाग़ी ग़ुलामी
Next articleआदिवासी लड़की
सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'
सुदामा पाण्डेय धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here