1. मानव की आँख
कोटरों से गिलगिली घृणा यह झाँकती है।
मान लेते यह किसी शीत-रक्त, जड़-दृष्टि
जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं
और तमजात सब जन्तुओं से
मानव का वैर है क्योंकि वह सुत है
प्रकाश का—यदि इनमें न होता यह स्थिर तप्त स्पन्दन तो!
मानव से मानव की मिलती है आँख पर
कोटरों से गिलगिली घृणा झाँक देती है!
इलाहाबाद स्टेशन, 12 अक्टूबर, 1947
2. पक गई खेती
वैर की परनालियों में हँस-हँसके
हमने सींची जो राजनीति की रेती
उसमें आज बह रही ख़ूँ की नदियाँ हैं
कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कहके हमने थूका था
घृणा की आज उसमें पक गई खेती
फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ हैं।
मेरठ, 15 अक्टूबर, 1947
3. ठाँव नहीं
शहरों में क़हर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में
अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में
त्राहि! त्राहि! शरण-शरण!
रुकते नहीं युगल चरण
थमती नहीं भीतर कहीं गूँज रही एकसुर रटना
कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें!
आन? मान? वह तो उफान है ग़ुरूर का—
पहली ज़रूरत है जान से चिपटना!
इलाहाबाद, 23 अक्टूबर, 1947
4. मिरगी पड़ी
अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है।
जैसे दूर के आवारे बादल की हल्की
छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले—
कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम
सहसा यों मूर्छा उसे आती है।
पुतली की जोत बुझ जाती है।
कहाँ गयी चेतना?
अरे ये तो मिरगी का रोगी है!
मिरगी का दौरा है।
चेतना स्तिमित है।
किन्तु कहीं भी तो दीखती नहीं शिथिलता—
तनी नसें, कसी मुट्ठी, भिंचे दाँत, ऐंठी माँस-पेशियाँ—
वासना स्थगित होगी किन्तु झाग झर रहा मुँह से!
आज जाने किस हिंस्र डर ने
देश को बेख़बरी में डस लिया!
संस्कृति की चेतना मुरझा गयी!
मिरगी का दौरा पड़ा, इच्छाशक्ति बुझ गयी!
जीवन हुआ है रुद्ध मूच्र्छना की कारा में—
गति है तो ऐंठन है, शोथ है,
मुक्ति-लब्ध राष्ट्र की जो देह होती लोथ है—
ओठ खिंचे, भिंचे दाँतों में से पूय झाग लगे झरने!
सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया!
इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947
5. रुकेंगे तो मरेंगे
सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना।
रूढ़ियों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!)
अब अनुसरेंगे—नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा
उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो:
व्यवस्था के, शान्ति, आत्मगौरव के, धीरज के
ढूह सब ढहने दो—बुद्धि जब जड़ हो तो
माँस-पेशियों की तड़पन को
जीवन की धड़कन मान लें—
(जब घोर जाड़े में
कम्बल का सम्बल न होता पास
तब हम जबड़े की किटकिट ही से बाँधते हैं आस
कुछ गरमाई की!)
भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ—
रुकेंगे तो मरेंगे!
इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947
6. समानान्तर साँप
(1)
हम एक लम्बा साँप हैं
जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता।
मैं—न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं)
दुम भी नहीं हूँ
औ’ न मैं हूँ दाँत ज़हरीले।
मैं—कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा
एक बेकस जीव हूँ।
ब ग़ल से गु ज़रे चले तुम जा रहे जो,
सिर झुकाये, पीठ पर गट्ठर सम्भाले
गोद में बच्ची लिये
उस हाथ से देते सहारा किसी बूढ़े या कि रोगी को—
पलक पर लादे हुए बोझा जुगों की हार का—
तुम्हें भी कैसे कहूँ तुम सृष्टि के सिरताज हो?
तुम भी जीव हो बेबस।
एक अदना अंग मेरे पास से होकर सरकती
एक जीती कुलबुलाती लीक का
जो असल में समानान्तर दूसरा
एक लम्बा साँप है।
झर चुकीं कितनी न जाने केंचुलें—
झाड़ियाँ कितनी कँटीली पार करके बार-बार,
सूखकर फिर-फिर
मिलीं हम को ज़िन्दगी की नयी किस्तें
किसी टुटपुँजिये
सूम जीवन-देवता के हाथ।
तुम्हारे भी साथ, निश्चय ही
हुआ होगा यही। तुम भी जो रहे हो
किसी कंजूस मरघिल्ले बँधे रातिब पर!
(2)
दो साँप चले जाते हैं।
बँध गयी है लीक दोनों की।
यह हमारा साँप—हम जा रहे हैं
उस ओर, जिसमें सुना है
सब लोग अपने हैं;
वह तुम्हारा साँप—
तुम भी जा रहे हो, सोचते निश्चय, कि वह तो देश है जिसमें
सत्य होते सभी सपने हैं।
यह हमारा साँप—
इस पर हम निछावर हैं।
जा रहे हैं छोड़कर अपना सभी कुछ
छोड़कर मिट्टी तलक अपने पसीने-ख़ून से सींची
किन्तु फिर भी आस बाँधे
वहाँ पर हम को निराई भी नहीं करनी पड़ेगी,
फल रहा होगा चमन अपना
अमन में आशियाँ लेंगे।
वह तुम्हारा साँप—
उसको तुम समर्पित हो।
लुट गया सब कुछ तुम्हारा
छिन गयी वह भूमि जिसको
अगम जंगल से तुम्हारे पूर्वजों ने ख़ून दे-देकर उबारा था
किन्तु तुम तो मानते हो, गया जो कुछ जाए—
वहाँ पर तो हो गया अपना सवाया पावना!
(3)
यह हमारा साँप जो फुंकारता है,
और वह फुंकार मेरी नहीं होती
किन्तु फिर भी हम न जाने क्यों
मान लेते हैं कि जो फुंकारता है, वह
घिनौना हो, हमारा साँप है।
वह तुम्हारा साँप—तुम्हें दीक्षा मिली है
सब घृण्य हैं फूत्कार हिंसा के
किन्तु जब वह उगलता है भा फ ज़हरीली,
तुम्हें रोमांच होता है—
तुम्हारा साँप जो ठहरा!
(4)
उस अमावस रात में—घुप कन्दराओं में
जहाँ फ़ौलादी अँधेरा तना रहता है
खड़ी दीवार-सा आड़ करके
नीति की, आचार, निष्ठा की
तर्जनी की वर्जना से
और सत्ता के असुर के नेवते आयी
बल-लिप्सा नंगी नाचती है:
उस समय दीवार के इस पार जब छाया हुआ होगा
सुनसान सन्नाटा उस समय सहसा पलटकर
साँप डस लेंगे निगल जाएँगे—
तुम्हें वह, तुम जिसे अपना साँप कहते हो
हमें यह, जो हमारा ही साँप है!
(5)
रुको, देखूँ मैं तुम्हारी आँख,
पहचानूँ कि उनमें जो चमकती है—
या चमकनी चाहिए क्योंकि शायद
इस समय वह मुसीबत की राख से ढँककर
बहुत मन्दी सुलगती हो—
तड़पती इनसानियत की लौ—
रुको, पहचानूँ कि क्या वह भिन्न है बिलकुल
उस हठीली धुकधुकी से
जनम से ही जिसे मैं दिल से लगाए हूँ?
रुको, तुम भी करो ऊँचा सीस, मेरी ओर
मुँह फेरो—करो आँखें चार झिझक को
छोड़ मेरी आँख में देखो,
नहीं जलती क्या वहाँ भी जोत—
काँपती हो, टिमटिमाती हो, शरीर छोड़ती हो,
धुएँ में घुट रही हो—
जीत वैसी ही जिसे तुमने
सदा अपने हृदय में जलती हुई पाया—
किसी महती शक्ति ने अपनी धधकती महज्ज्वाला से छुलाकर
जिसे देहों की मशालों में
जलाया!
(6)
रुकूँ मैं भी! क्यों तुम्हें तुम कहूँ?
अपने को अलग मानूँ? साँप दो हैं
हम नहीं। और फिर
मनुजता के पतन की इसी अवस्था में भी
साँप दोनों हैं पतित दोनों
तभी दोनों एक!
(7)
केंचुलें हैं, केंचुले हैं, झाड़ दो!
छल-मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो!
साँप के विष-दाँत तोड़ उखाड़ दो!
आजकल का चलन है—सब जन्तुओं की खाल पहने हैं—
गले गीदड़-लोमड़ी की,
बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में—जगमगाती साँप की केंचुल
बनी है श्री चरण का सैंडल
किन्तु भीतर कहीं भेड़-बकरी,
बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अन्दर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है
सनातन मानव-खरा इनसान—
क्षण भर रुको तो उसको जगा लें!
नहीं है यह धर्म, ये तो पैतरे हैं उन दरिन्दों के
रूढ़ि के नाख़ून पर मरजाद की मखमल चढ़ाकर
जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं—
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें!
साथ आओ—गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो यह मकर
की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुले हैं केंचुले हैं झाड़ दो!
इलाहाबाद, 27-29 अक्टूबर, 1947
7. गाड़ी रुक गई
रात गाड़ी रुक गयी वीरान में।
नींद से जागा चमककर, सुना
पिछले किसी डिब्बे में किसी ने
मारकर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक
रुकी है गाड़ी—यहीं पड़ताल होगी।
न जाने कौन था वह पर हृदय ने
तभी साखी दी रात में कोई अभागा
मार बैठा छुरा अपने ही हृदय में
स्वयं अपने को उठाकर फेंक बैठा
दनदनाती बढ़ रही कुल मनुजता की रेल से।
और उसके लिए रुकना पड़ेगा
मनुजता के यान को मुक्ति-उन्मुख रथ
हमारा—वाहिनी सारी—यहाँ रुक जाएगी—
देह अपने रोग का भी भार ढोती है।
धिक्! पुनः धिक्कार! और यह धिक्कार
हिन्दू या मुसल्माँ नहीं, यह धिक्कार
आक्रोश है अपमानिता मेरी मनुजता का!
काशी, 4 नवम्बर, 1947
8. हमारा रक्त
यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त
वह उधर रहा उतना ही लाल
तुम्हारी एक बहिन का रक्त!
बह गया, मिलीं दोनों धारा
जाकर मिट्टी में हुईं एक
पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं
न अंकुर उसमें फूटा।
यह दूषित दान नहीं लेती—
क्योंकि घृणा के तीखे विष से आज हो गया है
अशक्त निस्तेज और निर्वीर्य हमारा रक्त!
काशी, 5 नवम्बर, 1947
9. श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा
(1)
धरती थर्रायी, पूरब में सहसा उठा बवण्डर
महाकाल का थप्पड़-सा जा पड़ा
चाँदपुर-नोआखाली-फेनी-चट्टग्राम-त्रिपुरा में
स्तब्ध रह गया लोक
सुना हिंसा का दैत्य, नशे में धुत्त, रौंदकर चला गया है
जाति-द्वेष की दीमक-खायी पोली मिट्टी
उठा वहाँ चीत्कार असंख्य दीनों पददलितों का
अपमानिता धर्षिता नारी का सहस्रमुख
फटा हुआ सुर फटे हृदय की आह
गूँज गयी—थर्राया सहम गया आकाश
फटी आँखों की भट्टी में जो ख़ून
उतर आया था वह जल गया।
(2)
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा
के कानों पर जूँ तब रेंगी,
तनिक सरककर थुलथुल
माया को आसन पर और
व्यवस्था से पधराकर
बोले—’आए हो, हाँ, आओ
बेचारी दुखियारी!
मंगल करनी सब दुख हरनी
माँ मरजादा फतवा देंगी।
सदा द्रौपदी की लज्जा को
ढँका कृष्णा ने चीर बढ़ाकर
धर्म हमारा है करुणाकर
हम न करेंगे बहिष्कार
म्लेच्छ-धर्षिता का भी, चाहे
उस लाँछन की छाप अमिट है।
साथ न बैठे—हाथ हमारे वह पाएगी
सदा दया का टुक्कड़—’ सहसा जूँ रुक गयी।
तनिक सरकी थी—नारिवर्ग का घर्षण
(तीन, तीस या तीन हज़ार—आँकड़ों का जीवन में उतना मूल्य नहीं है—)
इतना ही बस था समर्थ। श्री पंडा जागे
यह भी उनकी अनुकम्पा थी और नहीं क्या
अपने आसन से डिग जाते?
लुट जाती मरजाद सनातन?
इसीलिए जूँ रुकी। सो गए
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा।
मानवता को लगीं घोंटने फिर
गुंजलकें मरु रूढ़ि की।
काशी-इलाहाबाद (रेल में), 6 नवम्बर, 1947
10. कहती है पत्रिका
कहती है पत्रिका
चलेगा कैसे उनका देश?
मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत—
देखें अब कैसे उनका मैला ढुलता है!
‘मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत।’
अगर वहीं के वे हो जाते
पंगु देश के सही, मगर होते आज़ाद नागरिक।
होते द्रोही!
यह क्या कम है यहाँ लौटकर
जनम-जनम तक जुगों-जुगों तक
मिले उन्हें अधिकार, एक स्वाधीन राष्ट्र का
मैला ढोवें?
इलाहाबाद, 7 नवम्बर, 1947
11. जीना है बन सीने का साँप
जीना है बन सीने का साँप
हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज़ है स्वराज
हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर
ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज
अपने ही बल के
अपने ही छल के
अपने ही कौशल के
अपनी समस्त सभ्यता के सारे
संचित प्रपंच के सहारे
जीना है हमें तो, बन सीने का साँप उस अपने समाज के
जो हमारा एक मात्र अक्षन्तव्य शत्रु है
क्योंकि हम आज हो के मोहताज
उसके भिखारी शरणार्थी हैं।
मुरादाबाद स्टेशन (आधी रात), 12 नवम्बर, 1947
***
गुलज़ार की नज़्म 'दस्तक'