“शहर में काफी शोर होता है”, मैंने धीमे से उसको देखते हुए बोला।
“पर मुझे ये शोर संगीत की धुन से लगते हैं, जिसपे ना जाने कितने कदमों को थिरथिराता देखती हूँ मैं!”, वो आँख मूँदे हुए बोली।
“अच्छा, फिर ये क्या है? मोजार्ट या बीथोवेन”, मैंने ज़रा सा छेड़ा।
“नहीं नहीं ये ओम जैसा कुछ है।”
“तुम्हें लगता है इनमें सृजन की क्षमता है?”
“हाँ क्यों नहीं? ये प्रेम को बढ़ाती हैं।”
“वो कैसे, तुम तो हमेशा खामोश होकर उनको ही सुनने लगती हो।”
“मैं समेटती हूँ उन स्वरों को जो प्रेम योगन बनाते हैं मुझे, तुम नहीं फील करते ऐसा?”
“ये कैसा सवाल हुआ? शोर शराबे में भला कहीं कोई योगी बनता है?”
“प्रेम ही तो दुनिया है, सबकुछ समेट करके अपना बना लो, और अपने को ही पूरी दुनिया।”