मुकेश कुमार सिन्हा की कविता ‘श्री यंत्र’ | ‘Shri Yantra’, a poem by Mukesh Kumar Sinha

आज एकदम से पर्स से खनककर
वो ख़ास ‘श्री यन्त्र’ सा सिक्का गिरा
गिरते ही छमककर
यादें भी कुलाँचे मारने लगीं!

हाँ, बता दूँ पहले ही कि संजो रखा है
अब तक
उस ख़ास ‘दस पैसे के सिक्के’ को

याद है न वो मेरी करतूतें
जिस पर तुम खिलखिलाते हुई कहती थीं
बेवक़ूफ़, उल्लू – क्या बच्चों सी करते हो हरकतें

एक छोटे चिंदी से काग़ज़ के टुकड़े को
दिल की शेप में काटकर
लिखा था तुम्हारा नाम
रेनोल्ड्स के क़लम से!
हाँ, मैंने ख़ुद से लिखा था,
तुम्हें तो पता ही था, मेरी हैण्ड-रायटिंग
थी थोड़ी ख़ूबसूरत
अब उसको चिपकाकर
उस ख़ास सिक्के पर…
रख दिया था ट्रेन की पटरी पर!

दूर से आती आवाज़… कू छुक छुक!
दम साधे कर रहे थे इंतज़ार
साथ ही मासूम धड़कता दिल… धक् धक्!
और, बस कुछ पलों बाद

गोल चमकते सिक्के में गढ़ा हुआ था तुम्हारा नाम!
चंचल सोच कह उठी – अमर हो गयी तुम!
और तब से, वो
पतला-सा चमकीला सिक्का, तुम्हारे नाम के साथ
है मेरे पर्स में सुरक्षित
तुम्हारे चले जाने के बाद भी!

आख़िर कर दिया था,
दस पैसा क़ुर्बान मैंने
तुम पर, बिना बताए!

वो तुम्हारी चिढ़न, वो जलन
वो अमूल्य प्यार
और नाम
सब है धरोहर… पर्स के कोने में!

तभी सोचूँ ये पर्स इतना भारी क्यों होता है
…है न अमीरी का ख़ूबसूरत टोटका!

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