जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है। इसी से फिर दो वर्ष के लिये भारत के वैसराय और गवर्नर जनरल होकर लार्ड कर्जन आते है। बहुत से विघ्नों को हटाते और बाधाओं को भगाते फिर एक बार भारत भूमि में आपका पदार्पण होता है। इस शुभयात्रा के लिये वह गत नवम्बर को सम्राट् एडवर्ड से भी विदा ले चुके है। दर्शन में अब अधिक विलम्ब नहीं है।

इस समय भारतवासी यह सोच रहे हैं कि आप क्यों आते है और आप यह जानते भी हैं कि आप क्यों आते हैं। यदि भारतवासियों का वश चलता तो आपको न आने देते और आपका वश चलता तो और भी कई सप्ताह पहले आ विराजते। पर दोनों ओर की बाग किसी और ही के हाथ में हैं। निरे बेबस भारतवासियों का कुछ वश नहीं है और बहुत बातों पर वश रखनेवाले लार्ड कर्जन को भी बहुत बातों में बेबस होना पड़ता है। इसी से भारतवासियों को लार्ड कर्जन का आना देखना पड़ता है और उक्त श्रीमान को अपने चलने में विलम्ब देखना पड़ा। कवि कहता है –

“जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।”

अभी भारतवासियों को बहुत कुछ देखना है और लार्ड कर्जन को भी बहुत कुछ। श्रीमान को नये शासनकाल के यह दो वर्ष निस्सन्देह देखने की वस्तु होंगे। अभी से भारतवासियों की दृष्टियां सिमटकर उस ओर जा पड़ी हैं। यह जबरदस्त द्रष्टा लोग अब बहुत काल से केवल निर्लिप्त निराकार तटस्थ द्रष्टा की अवस्था में अतृप्त लोचन से देख रहे हैं और न जाने कब तक देखे जावेंगे। अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गये, पर दृष्टि नहीं हटाते हैं। उन्होंने पृथिवीराज, जयचन्द की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी, अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे, शाहजहानी तख्तताऊस और शाही जुलूस देखे। फिर वही तख्त नादिर को उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे, क्लाइव हेस्टिंग्स से वीर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौक से लार्ड कर्जन का हाथियों का जुलूस और दिल्ली-दरबार देखा। अब गोरे पहलवान मिस्टर सेण्डोका छाती पर कितने ही मन बोझ उठाना देखने को टूट पड़ते हैं। कोई दिखाने वाला चाहिये, भारतवासी देखने को सदा प्रस्तुत हैं। इस गुण में वह मूँछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसार में कोई उनका सानी नहीं। लार्ड कर्जन भी अपनी शासित प्रजा का यह गुण जान गये थे, इसी से श्रीमान् ने लीलामय रूप धारण करके कितनी ही लीलाएं दिखाई।

इसी से लोग बहुत कुछ सोच विचार कर रहे हैं कि इन दो वर्षों में भारत प्रभु लार्ड कर्जन और क्या क्या करेंगे। पिछले पांच साल से अधिक समय में श्रीमान्-ने जो कुछ किया, उसमें भारतवासी इतना समझने लगे हैं कि श्रीमान् की रुचि कैसी है और कितनी बातों को पसन्द करते हैं। यदि वह चाहें तो फिर हाथियों का एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ जरूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथी पर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथिवी में नहीं तो भारतवर्ष में तो और नहीं है। इसी से फिर किसी हाथी पर बैठने का श्रीमान् को और क्या चाव हो सकता है? उससे ऊंचा हाथी और नहीं है। ऐरावत का केवल नाम है, देखा किसी ने नहीं है। मेमथ की हड्डियां किसी किसी अजायबखाने में उसी भांति आश्चर्य की दृष्टि से देखी जाती हैं, जैसे श्रीमान् के स्वदेश के अजायबखाने में कोई छोटा मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथी की छोटाई बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो कहीं और सही। क्योंकि दिल्ली में आतशबाजी खूब चल चुकी थी, कलकत्ते में फिर चलाई गई। दिल्ली में हाथियों की सवारी हो चुकने पर भी कलकत्ते में रोशनी और घोड़ागाड़ी का तार जमा था। कुछ लोग कहते हैं कि जिस काम को लार्ड कर्जन पकड़ते है, पूरा करके छोड़ते है। दिल्ली दरबार में कुछ बातों की कसर रह गयी थी। उदयपुर के महाराणा न तो हाथियों के जुलूस में साथ चल सके, न दरबार में हाजिर होकर सलामी देने का मौका उनको मिला। इसी प्रकार बड़ोदा नरेश हाथियों के जुलूस में शामिल न थे। वह दरबार में भी आये तो बड़ी सीधी सादी पोशाक में। इतनी सीधी सादी में जितनी से आज कलकत्ते में फिरते हैं। वह ऐसा तुमतराक और ठाठ-बाठ का समय था कि स्वयं श्रीमान् वैसराय को पतलून तक कारचोबी की पहनना और राजा महाराजों को काठ की तथा ड्यूक आफ कनाट को चांदी की कुरसी पर बिठाकर स्वयं सोने के सिंहासन पर बैठना पड़ा था। उस मौके पर बड़ौदा नरेश का इतनी सफाई और सादगी से निकल जाना एक नई आन था। इसके सिवा उन्होंने झुक के सलाम नहीं किया था, बड़ी सादगी से हाथ मिलाकर चल दिये थे। यह कई एक कसरें ऐसी हैं, जिनके मिटाने को फिर दरबार हो सकता है। फिर हाथियों का जुलूस निकल सकता है।

इन लोगों के विचार में कलाम नहीं। पर समय कम है, काम बहुत होंगे। इसके सिवा कई राजा महाराजा पहले दरबार ही में खर्च से इतने दब चुके हैं कि श्रीमान् लार्ड कर्जन के बाद यदि दो वैसराय और आवें और पांच पांच की जगह सात सात साल तक शासन करें, तब तक भी उनका सिर उठाना कठिन है। इससे दरबार या हाथियों के जुलूस की फिर आशा रखना व्यर्थ है। पर सुना है कि अब के विद्या का उद्धार श्रीमान् जरूर करेंगे। उपकार का बदला देना महत् पुरुषों का काम है। विद्या ने आपको धनी किया है, इससे आप विद्या को धनी किया चाहते हैं। इसी से कंगालों से छीनकर आप धनियों को विद्या देना चाहते हैं। इससे विद्या का वह कष्ट मिट जावेगा जो उसे कंगाल को धनी बनाने में होता है। नींव पड़ चुकी है, नमूना कायम होने में देर नहीं। अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियों की निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े न पढ़े उनकी निन्दा न होगी। इस तरह लार्ड कर्जन की कृपा उन्हें बेपढ़े भी शिक्षित कर देगी।

और कई काम हैं, कई कमीशनों के काम का फैसिला करना है, कितनी ही मिशनों की कारवाई का नतीजा देखना है। काबुल है, काश्मीर है, काबुल में रेल चल सकती है, काश्मीर में अंग्रेजी बस्ती बस सकती है। चाय के प्रचार की भांति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देश में बहुत जरूरत है। बंगदेश का पार्टीशन भी एक बहुत जरूरी काम है। सबसे जरूरी काम विक्टोरिया मिमोरियलहाल है। सन् 1858 ई. की घोषणा अब भारतवासियों को अधिक स्मरण रखने की जरूरत न पड़ेगी। श्रीमान् स्मृतिमन्दिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देंगे, जिसको देखते ही लोग जान जावेंगे कि महारानी वह थीं जिनका यह स्मारक है।

बहुत बातें हैं। सबको भारतवासी अपने छोटे दिमागों में नहीं ला सकते। कौन जानता है कि श्रीमान् लार्ड कर्जन के दिमाग में कैसे-कैसे आली खयाल भरे हुए हैं। आपने स्वयं फरमाया थी कि बहुत बातों में हिन्दुस्तानी अंग्रेजों का मुकाबिला नहीं कर सकते। फिर लार्ड कर्जन तो इंग्लैंड के रत्न हैं। उनके दिमाग की बराबरी कर गुस्ताखी करने की यहां के लोगों को यह बूढ़ा भंगड़ कभी सलाह नहीं दे सकता। श्रीमान् कैसे आली दिमाग शासक हैं, यह बात उनके उन लगातार कई व्याख्यानों से टपकी पड़ती हैं, जो श्रीमान् ने विलायत में दिये थे और जिनमें विलायतवासियों को यह समझाने की चेष्टा की थी कि हिन्दुस्तान क्या वस्तु है? आपने साफ दिखा दिया था कि विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिन्दुस्तान क्या है। हिन्दुस्तान को श्रीमान् स्वयं ही समझे हैं। विलायतवाले समझते तो क्या समझते? विलायत में उतना बड़ा हाथी कहां जिसपर वह चंवर छत्र लगाकर चढ़े थे? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्च श्रेणी के शासक हैं? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारत को विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायतवालों को समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान्-का शासन क्या? आश्चर्य नहीं, भविष्य में ऐसा कुछ उपाय निकल आवे। क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा।

भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जन के शासन में कुछ करना न पड़ेगा। आनन्द ही आनन्द है। चैन से भंग पियो और मौज उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है –

कुंडी के नकारे पे खुतके का लगा डंका।
नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका।।

पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल न जाना।

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बालमुकुंद गुप्त
बालमुकुंद गुप्त (१४ नवंबर १८६५ - १८ सितंबर १९०७) का जन्म गुड़ियानी गाँव, जिला रिवाड़ी, हरियाणा में हुआ। उन्होने हिन्दी के निबंधकार और संपादक के रूप हिन्दी जगत की सेवा की।

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