‘Siwa Prem Ke’, a poem by Sunita Daga
तुमने कहा था समझाकर
मन को छोटा नहीं करते हैं
उठो,
मत बैठो उदास
कितना कुछ है जीवन में
केवल प्रेम ही तो नहीं
उठो,
देखो आकाश की ऊँचाइयों को
अपने पंख फड़फड़ाओ
दायरों से बाहर निकलो
रात-दिन यूँ बँधे रहना
क्या अच्छा होता है?
तुमसे जीतना कभी नहीं आया
इस बार भी मान ली मैंने तुम्हारी बात
एक कुशल खिलाड़ी जो ठहरे तुम!
देखो, कितना बड़ा कर दिया मैंने
अपने मन को
कितना कुछ समा गया है इसमें
दिन-रात गोते लगाती रहती हूँ
ख़ुद को ही खंगालकर
ख़ाली हाथ लौटती हूँ
तुम मुस्कुराते रहते हो
यह नया खेल भी जान रही हूँ मैं
कितना कुछ समा गया है
इस बड़े मन में
लाज़मी ही था
इसके तले धँस जाना
उनींदी आँखों में तैरते
अधूरे सपनों का,
अकुलाती जगती कई-कई रातों का,
गुनगुनी धूप से लिपटे
रेशमी दिनों का
लाज़मी था प्रिय,
छूट जाना बहुत कुछ
अनकहा
जो अभी तक नहीं जिया
उसका बिना जिये ही मर जाना
देखो,
तुम्हारी बात मान ली है मैंने
अब
सब-कुछ है यहाँ
सिवा प्रेम के!
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