घुमक्कड़ असंग और निर्लेप रहता है, यद्यपि मानव के प्रति उसके हृदय में अपार स्‍नेह है। यही अपार स्‍नेह उसके हृदय में अनंत प्रकार की स्‍मृतियाँ एकत्रित कर देता है। वह कहीं किसी से द्वेष करने के लिए नहीं जाता। ऐसे आदमी के अकारण द्वेष करने वाले भी कम ही हो सकते हैं, इसलिए उसे हर जगह से मधुर स्‍मृतियाँ ही जमा करने को मिलती हैं। हो सकता है, तरुणाई के गरम ख़ून, या अनुभव-हीनता के कारण घुमक्कड़ कभी किसी के साथ अन्‍याय कर बैठे, इसके लिए उसे सावधान कर देना आवश्‍यक है। घुमक्कड़ कभी स्‍थायी बंधु-बांधवों को नहीं पा सकता, किंतु जो बंधु-बांधव उसे मिलते हैं, उनमें अस्‍थायी साकार बंधु-बांधव ही नहीं, बल्कि कितने ही स्‍थायी निराकार भी होते हैं, जो कि उसकी स्‍मृति में रहते हैं। स्‍मृति में रहने पर भी वह उसी तरह हर्ष-विषाद पैदा करते हैं, जैसे कि साकार बंधुजन। यदि घुमक्कड़ ने अपनी यात्रा में कहीं भी किसी के साथ बुरा किया तो वह उसकी स्‍मृति में बैठकर घुमक्कड़ से बदला लेता है। घुमक्कड़ कितना ही चाहता है कि अपने किए हुए अन्‍याय और उसके भागी को स्‍मृति से निकाल दे, किंतु यह उसकी शक्ति से बाहर है। जब कभी उस अत्‍याचार-भागी व्‍यक्ति और उस पर किए गए अपने अत्‍याचार की स्‍मृति आती है, तो घुमक्कड़ के हृदय में टीस लगने लगती है। इसलिए घुमक्कड़ को सदा सावधान रहने की आवश्‍यकता है कि वह कभी ऐसी उत्‍पीड़क स्‍मृति को पैदा न होने दे।

घुमक्कड़ ने यदि किसी के साथ अच्छा बर्ताव, उपकार किया है, चाहे वह उसे मुँह से प्रकट करना कभी पसंद नहीं करता, किंतु उससे उसे आत्‍मसंतोष अवश्य होता है। जिन्‍होंने घुमक्कड़ के ऊपर उपकार किया है, सांत्वना दी है, या अपने संग से प्रसन्‍न किया है, घुमक्कड़ उन्‍हें कभी नहीं भूल सकता। कृतज्ञता और कृतवेदिता घुमक्कड़ के स्वभाव में है। वह अपनी कृतज्ञता को वाणी और लेखनी से प्रकट करता है और हृदय में भी उसका अनुस्मरण करता है।

यात्रा में घुमक्कड़ के सामने नित्‍य नए दृश्‍य आते रहते हैं। इनके अतिरिक्‍त ख़ाली घड़ियों में उसके सामने सारे अतीत के दृश्‍य स्‍मृति के रूप में प्रकट होते रहते हैं। यह स्‍मृतियाँ घुमक्कड़ को बड़ी सांत्वना देती हैं। जीवन में जिन वस्‍तुओं से वह वंचित रहा, उनकी प्राप्ति यह मधुर स्‍मृतियाँ कराती हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि घुमक्कड़ एक जगह न ठहर सकने पर भी अपने परिचित मित्रों को सदा अपने पास रखता है। घुमक्कड़ कभी लंदन या मास्‍को के एक बड़े होटल में ठहरा होता है, जहाँ की दुनिया ही बिलकुल दूसरी है, किंतु वहाँ से भी उसकी स्‍मृतियाँ उसे तिब्‍बत के किसी गाँव में ले जाती हैं। उस दिन थका-माँदा बड़े डांडे को पार करके एक घुमक्कड़ सूर्यास्‍त के बाद उस गाँव में पहुँचा था। बड़े घर वालों ने उसे रहने की जगह नहीं दी, उन्‍होंने कोई-न-कोई बहाना कर दिया। अंत में वह एक अत्यंत ग़रीब के घर में गया। उसे घर भी नहीं कहना चाहिए, किसी पुराने खंडहर को छा-छूकर ग़रीब ने अपने और बच्‍चों के लिए वहाँ स्‍थान बना लिया था। ग़रीब हृदय खोलकर घुमक्कड़ से मिला। घुमक्कड़ रास्‍ते की सारी तकलीफ़ें भूल गया। गाँव वालों का रूखा रुख़ चिरविस्‍मृत हो गया। उसने उस छोटे परिवार के जीवन और कठिनाई को देखा, साथ ही उतने विशाल हृदय को जैसा उसने उस गाँव में नहीं पाया था। घुमक्कड़ के पास जो कुछ भी देने लायक़ था, चलते वक़्त उसे उसने उस परिवार को दे दिया, किंतु वह समझता था कि सिर्फ़ इतने से वह पूरी तौर से कृतज्ञता प्रकट नहीं कर सकता।

घुमक्कड़ के जीवन में ऐसी बहुत-सी स्‍मृतियाँ होती हैं। जो कटु स्‍मृतियाँ यदि घर करके बैठी होती हैं, उनमें अपने किए हुए अन्‍याय की स्‍मृति दुस्‍सह हो उठती है। कृतज्ञता और कृतवेदिता घुमक्कड़ का गुण है। वह जानता है कि हर रोज़ कितने लोग अकारण ही उसकी सहायता के लिए तैयार हैं और वह उनके लिए कुछ भी नहीं कर सकता। उसे एक बार का परिचित दूसरी बार शायद ही मिलता है, घुमक्कड़ इच्‍छा रहने पर भी वहाँ दूसरी बार जा ही नहीं पाता। जाता भी है तो उस समय तक बारह साल का एक युग बीत गया रहता है। उस समय अक्‍सर अधिकांश परिचित चेहरे दिखलायी नहीं पड़ते, जिन्‍होंने उसके साथ मीठी-मीठी बातें की थीं, हर तरह की सहायता की थी। बारह वर्ष के बाद वाणी से भी कृतज्ञता प्रकट करने का उसे अवसर नहीं मिलता। इसके लिए घुमक्कड़ के हृदय में मीठी टीस लगती है—उस पुरुष की स्‍मृति में मिठास अधिक होती है, उसके वियोग में टीस।

घुमक्कड़ के हृदय में जीवन की स्‍मृतियाँ वैसे ही संचित होती रहती हैं, किंतु अच्छा है वह अपनी डायरी में इन स्‍मृतियों का उल्‍लेख करता जाए। कभी यात्रा लिखने की इच्‍छा होने पर यह स्‍मृति-संचिकाएँ बहुत काम आती हैं। अपने काम नहीं आएँ, तो भी हो सकता है, दूसरे के काम आएँ। डायरी घुमक्कड़ के लिए उपयोगी चीज़ है। यदि घुमक्कड़ ने जिस दिन से इस पथ पर पैर रखा, उसी दिन से वह डायरी लिखने लगे, तो बहुत अच्छा हो। ऐसा न करने वालों को पीछे पछतावा होता है। घुमक्कड़ का जब कोई घर-द्वार नहीं, तो वह साल-साल की डायरी कहाँ सुरक्षित रखेगा? यह कोई कठिन प्रश्‍न नहीं है। घुमक्कड़ अपनी यात्रा में ऐतिहासिक महत्त्व की पुस्‍तकें प्राप्‍त कर सकता है, चित्रपट या मूर्तियाँ जमा कर सकता है। उसके पास इनके रखने की जगह नहीं, किंतु क्या ऐसा करने से वह बाज़ आ सकता है? वह उन्‍हें जमा करके उपयुक्‍त स्‍थान में भेज सकता है। यदि मैं यह समझता कि बे-घरबार का होने के कारण क्‍यों किसी चीज़ को जमा करूँ तो मैं समझता हूँ पीछे मुझे इसका बराबर पछतावा रहता। मैंने तिब्‍बत में पुराने सुंदर-चित्र ख़रीदे, हस्‍तलिखित पुस्‍तकें जमा कीं, और भी जो ऐतिहासिक, सांस्‍कृतिक महत्त्व की चीज़ें मिलीं, उन्‍हें जमा करते समय कभी नहीं ख़याल किया कि बे-घर के आदमी को ऐसा करना ठीक नहीं। पहली यात्रा में बाईस खच्‍चर पुस्‍तकें और दूसरी चीज़ें मैं साथ लाया। मैं जानता था कि उनका महत्त्व है, और हमारे देश में सुरक्षित रखने का स्‍थान भी मिल जाएगा। कुछ समय बाद वह चीज़ें पटना म्‍यूज़ियम को दे दीं। अगली यात्राओं में भी जब-जब कोई महत्त्वपूर्ण चीज़ हाथ लगी, मैं लाता रहा। उनमें से कुछ पटना म्‍यूज़ियम को दीं, कुछ को काशी के कला-भवन में और कुछ चीज़ें प्रयाग म्‍यूनिसिपल म्‍यूज़ियम में भी। व्‍यक्तियों को ऐसी चीज़ें देना मुझे कभी पसंद नहीं रहा। बहुत आग्रह करने पर किन्‍हीं मित्रों को सिर्फ़ दो-एक ही ऐसी चीज़ें लाकर दीं। घुमक्कड़ अपनी यात्रा में कितनी ही दिलचस्‍प चीज़ें पा सकता है। यदि वह सुरक्षित जगह पर हैं तो कोई बात नहीं, यदि अरक्षित जगह पर हैं, तो उन्‍हें अवश्य सुरक्षित जगह पर पहुँचाना घुमक्कड़ का कर्तव्‍य है। हाँ, यह देखते हुए कि वैसा करने से घुमक्कड़-पंथ पर कोई लांछन न लगे।

घुमक्कड़ को इस बात का भी ख़याल मन में लाना नहीं चाहिए कि उसने चीज़ों को इतनी कठिनाई से संग्रह किया, लेकिन लोगों ने उस संग्रह से उसका नाम हटा दिया। एक बार ऐसा देखा गया : एक घुमक्कड़ ने बहुत-सी बहुमूल्‍य वस्‍तुएँ एक संस्‍था को दी थीं। संस्‍था के अधिकारियों ने पहले उन चीज़ों के साथ दायक का नाम लिखकर टाँग दिया था, फिर किसी समय नाम को हटा दिया। घुमक्कड़ के एक साथी को इसका बहुत क्षोभ हुआ। लेकिन घुमक्कड़ को इसका कोई ख़याल नहीं हुआ। उसने कहा : यदि यह चीज़ें इतनी नगण्य हैं, तो दायक का नाम रहने से ही क्या होता है? यदि वह बड़े महत्त्व की वस्‍तुएँ हैं, तो वर्तमान अधिकारियों का ऐसा करना केवल उपहासास्‍पद चेष्‍टा है, लेकिन वह महत्त्वपूर्ण वस्‍तुएँ कैसे यहाँ पहुँची, क्या इस बात को अगली पीढ़ियों से छिपाया जा सकता है?

जो भी हो, अपने घुमक्कड़ रहने पर भी संस्‍थाओं के लिए जो भी वस्‍तुएँ संग्रहीत हो सकें, उनका संग्रह करना चाहिए। ऐसी ही किसी संस्‍था में वह अपनी साल-साल की डायरी भी रख सकता है। व्‍यक्ति के ऊपर भरोसा नहीं करना चाहिए। व्‍यक्ति का क्या ठिकाना है? न जाने कब चल बसे, फिर उसके बाद उत्तराधिकारी इन वस्‍तुओं का क्या मूल्‍य समझेंगे! बहुत-सी अनमोल निधियों के साथ उत्तराधिकारियों का अत्याचार अविदित नहीं है। उस दिन ट्रेन दस घंटा बाद मिलने वाली थी, इसलिए कटनी में डाक्‍टर हीरालाल जी का घर देखने चले गए। भारतीय इतिहास, पुरातत्‍व के महान् गवेषक और परम अनुरागी हीरालाल अपने जीवन में कितनी ही ऐतिहासिक सामग्रियाँ जमा करते रहे। अब भी उनकी जमा की हुई कितनी ही मूर्तियाँ सीमेंट के दरवाज़े में मढ़ी लगी थीं। उनके निजी पुस्‍तकालय में बहुत-से महत्त्वपूर्ण और कितने ही दुर्लभ ग्रंथ हैं। डाक्‍टर हीरालाल के भतीजे अपने कीर्तिशाली चचा की चीज़ों का महत्त्व समझते हैं, अतः चाहते थे कि उन्‍हें कहीं ऐसी जगह रख दिया जाए जहाँ वह सुरक्षित रह सकें। उनको कटनी ही की किसी संस्‍था में रख छोड़ने का मोह था। मैंने कहा—आप इन्‍हें सागर विश्‍वविद्यालय को दे दें। वहाँ इन वस्‍तुओं से पूरा लाभ उठाया जा सकता है, और चिरस्‍थायी तथा सुरक्षित भी रखा जा सकता है। उन्‍होंने इस सलाह को पसंद किया। मेरे मित्र डाक्‍टर जायसवाल अधिक अग्रसोची थे। उन्‍होंने क़ानून की पुस्‍तकें छोड़ अपने सारे पुस्‍तकालय को हिंदू विश्‍वविद्यालय के नाम पहले ही लिख दिया था।

घुमक्कड़ का अपना घर न रहने के कारण इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि अपने पास धीरे-धीरे बड़ा पुस्‍तकालय या संग्रहालय जमा हो जाएगा। जो भी महत्त्वपूर्ण चीज़ हाथ लगे, उसे सुपात्र संस्‍था में देते रहना चाहिए। सुपात्र संस्‍था के लिए आवश्‍यक नहीं है कि वह घुमक्कड़ की अपनी ही जन्‍मभूमि की हो। वह जिस देश में भी घूम रहा है, वहाँ की संस्‍था को भी दे सकता है।

घुमक्कड़-शास्‍त्र समाप्‍त हो रहा है। शास्‍त्र होने से यह नहीं समझना चाहिए कि यह पूर्ण है। कोई भी शास्‍त्र पहले ही कर्ता के हाथों पूर्णता नहीं प्राप्‍त करता। जब उस शास्‍त्र पर वाद-विवाद, खंडन-मंडन होते हैं, तब शास्‍त्र में पूर्णता आने लगती है। घुमक्कड़-शास्‍त्र से घुमक्कड़ी पंथ बहुत पुराना है। घुमक्कड़-चर्या मानव के आदिम काल से चली आयी है, लेकिन यह शास्‍त्र जून 1949 से पहले नहीं लिखा जा सका। किसी ने इसके महत्त्व को नहीं समझा। वैसे धार्मिक घुमक्कड़ों के पथ-प्रदर्शन के लिए, कितनी ही बातें पहले भी लिखी गई थीं। सबसे प्राचीन संग्रह हमें बौद्धों के प्रातिमोक्ष-सूत्रों के रूप में मिलता है। उनका प्राचीन ऐतिहासिक महत्त्व बहुत है और हम कहेंगे कि हर एक घुमक्कड़ को एक बार उनका पारायण अवश्य करना चाहिए (इन सूत्रों का मैंने विनयपिटक ग्रंथ में अनुवाद कर दिया है)। उनके महत्त्व को मानते हुए भी मैं नम्रतापूर्वक कहूँगा कि घुमक्कड़-शास्‍त्र लिखने का यह पहला उपक्रम है। यदि हमारे पाठक-पाठिकाएँ चाहते हैं कि इस शास्‍त्र की त्रुटियाँ दूर हो जाएँ, तो वह अवश्य लेखक के पास अपने विचार लिख भेंजे। हो सकता है, इस शास्‍त्र को देखकर इससे भी अच्छा सांगोपांग ग्रंथ कोई घुमक्कड़ लिख डाले, उसे देखकर इन पंक्तियों के लेखक को बड़ी प्रसन्‍नता होगी। इस प्रथम प्रयास का अभिप्राय ही यह है कि अधिक अनुभव तथा क्षमतावाले विचारक इस विषय को उपेक्षित न करें, और अपनी समर्थ लेखनी को इस पर चलाएँ। आने वाली पीढ़ियों में अवश्‍य कितने ही पुरुष पैदा होंगे, जो अधिक निर्दोष ग्रंथ की रचना कर सकेंगे। उस वक़्त लेखक जैसों को यह जान कर संतोष होगा कि यह भार अधिक शक्तिशाली कंधों पर पड़ा।

“जयतु जयतु घुमक्कड़-पंथा।”

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राहुल सांकृत्यायन
राहुल सांकृत्यायन जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिन्दी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। वह हिंदी यात्रासहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।