जिन चेहरों को देखते हुए बीता बचपन,
और झुर्रियों में बसी हुई जिनकी सुनी हज़ारों कहानियाँ
उन अनगिनत भावों को समेटे हुए चेहरों को,
ढूँढता फिरता है ये मन।
उन्हें,
जो खो गए कहीं अनंत में
पीछे छोड़ अपने,
एक ठगा सा भाव
चेहरों पर अपनों के।
होकर थोड़ा स्वार्थी और निश्चिंत
बिखेरते हुए चिर शांति अपने मुख मंडल पर,
हो गए ओझल
आँखों से और दुनिया से।
वक़्त ने लील लिए न जाने कितने
अपनों को,
और अब
वो चेहरे बस बन्द आँखों के कोरों में
या फिर नीले आसमान के आंगन में
दिख जाते हैं कभी तैरते हुए,
और तैरती हैं यादें उनकी
मौसम की सौंधी बारिश में,
या वक़्त बेवक़्त उन आँखों की बारिश में,
जिनकी बाढ़ में डूब चुका है ये मन कई बार।
जिन उँगलियों की टोह लेते बीता शैशव,
जो मेले में गुम होने से बचाने का गुमान दिलाते थे,
और जिनका हाथ पकड़कर भीड़ में भी
बेफिक्री की धूल उड़ाते थे।
आज उन अंगुलियों की छुवन को रहता है
एक सपने का इंतज़ार,
जो छू जाए, सहला जाए
भीगते हुए मन को कुछ समझा जाए,
या फूंक जाए कानों में कोई मंत्र
सुनकर जिसे सारे किस्से ही दुख के धुल जाएं।
पर अब खाली हाथ
और थके हुए पैरों से
उन्हीं रास्तों पर
गुरबत की धूल उड़ाते हैं।
ये जो डर दिल में बसा सा है
बनकर वो नादान, पूछता रहता है
प्रश्न अनगिनत,
और सोचता है,
वक्त की शतरंज ने अब किसे मात दी,
काल की साँप सीढ़ी के साँप ने
अब किसे डसा है,
किसका साथ छूटेगा अब
या कौन दूर जाएगा,
कौन सा हँसता हुआ चेहरा
भीड़ से गुम हो जाएगा।

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अनुपमा मिश्रा
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