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सृष्टि की पहली सुबह थी वह!
कहा गया मुझसे
तू उजियारा है धरती का
और छीन लिया गया मेरा सूरज!
कहा गया मुझसे
तू बुलबुल है इस बाग़ का
और झपट लिया गया मेरा आकाश!
कहा गया मुझसे
तू पानी है सृष्टि की आँखों का
और मुझे ब्याहा गया रेत से
सुखा दिया गया मेरा सागर!
कहा गया मुझसे
तू बिम्ब है सबसे सुन्दर
और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण!

बाबा कबीर की कविता की माटी की तरह नहीं,
पेपर मैशी की लुगदी की तरह
मुझे ‘रूंदा’ गया,
किसी-किसी तरह मैं उठी,
एक प्रतिमा बनी मेरी,
कोई था जिसने दर्पण की किरचियाँ उठायीं
और रोम-रोम में प्रतिमा के जड़ दी!
एक ब्रह्माण्ड ही परावर्तित था
रोम-रोम में अब तो!
जो सूरज छीन लिया था मुझसे
दौड़ता हुआ आ गया वापस
और हपसकर मेरे अंग लग गया!
आकाश ख़ुद एक पंछी-सा
मेरे कंधे पर उतर आया…

वक़्त-सा समुन्दर मेरे पाँव पर बिछ गया,
धुल गयी अब युगों की कीचड़!
अब मैं व्यवस्थित थी!
पूरी यह कायनात ही मेरा घर थी अब!
अपने दस हाथों से
करने लगी काम घर के और बाहर के!
एक घरेलू दुर्गा
भाले पर झाड़न लपेट लिया मैंने
और लगी धूल झाड़ने
क़ायदों की, वायदों की, रस्मों की, मिथकों की,
इतिहास की मेज़ भी झाड़ी!
महिषासुर के मैंने काट दिए नाख़ून,
नहलाकर भेज दिया दफ़्तर!
एक नयी सृष्टि अब
मचल रही थी मेरे भीतर!

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