‘Stree Aur Purush’, a poem by Harshita Panchariya

जब पुरुषों को कुछ
स्त्रियों की चाल स्वयं से अधिक
लगी तो उन्होंने ‘चाल-चलन’
का हवाला देकर समाज
से निष्कासित किया।

फिर समाज ने पुराने सिक्कों की तरह
बढ़ती उम्र की स्त्रियों
को भी ‘चलन’ के बाहर कर दिया।

पर दुगनी उम्र के पुरुष
लालायित रहे
अपने से आधी उम्र
की उन लड़कियों के लिए
जिन्हें नापने भर से
वह हाँफने लगते थे।

अब जब स्त्रियों ने इस बात पर
ठहाके लगाए तो
पुरुषों ने अशोभनीय का ठप्पा
लगाकर दीवारों में क़ैद कर लिया।

दीवारें ये सब देखती रहीं
फिर एक दिन दीवारों ने
अपने ऊपर
पुरुषत्व बढ़ाने के विज्ञापन
चस्पा करवाये
पर हाय रे क़िस्मत
उन दीवारों पर आवारा कुत्तों
की नज़र लग गई
और विज्ञापन धुल गए।

स्त्रियाँ ताउम्र वफ़ा ढूँढती रहीं
और पुरुष ‘काम’ की दवा
स्त्रियाँ चाहती थीं
अपनी आत्मा को तृप्त करना
पर पुरुष सीमित रहा
अपनी दैहिक क्षुधा की दीवार लिए।

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