‘Stree Ki Vyaktigat Bhasha’, a poem by Manjula Bist
स्त्री ने जब अपनी भाषा चुनी
तब कुछ आपत्तियाँ दर्ज हुईं…
पहली आपत्ति दहलीज़ को थी
अब उसे एक नियत समय के बाद भी जागना था।
दूसरी आपत्ति मुख्य-द्वार को थी
उसे अब गाहे-बगाहे खटकाये जाने पर लोकलाज का भय था।
तीसरी पुरज़ोर आपत्ति माँ हव्वा को थी
अब उसकी नज़रें पहले सी स्वस्थ न रही थीं।
चौथी आपत्ति आस-पड़ोस को थी
वे अपनी बेटियों के पर निकलने के अंदेशें से शर्मिंदा थे।
पाँचवी आपत्ति उन कविताओं को थी
जिनके भीतर स्त्री
मात्र माँसल-वस्तु बनाकर धर दी गयी थी।
स्वयं भाषावली भी उधेड़बुन में थी
कि कहीं इतिहासकार उसे स्त्री को बरगलाने का दोषी न ठहरा दें….
तब से गली-मुहल्ला, आँगन व पंचायतों के निजी एकांत
अनवरत विरोध में हैं कि
स्त्री को अथाह प्रेम व चल-अचल सम्पति दे देनी थी
लेकिन उसकी व्यक्तिगत-भाषा नहीं….!!
यह भी पढ़ें:
हर्षिता पंचारिया की कविता ‘स्त्री और पुरुष’
उषा दशोरा की कविता ‘तर्क वाली आँखें’
निधि अग्रवाल की कविता ‘स्वांग’