‘Striyaan’, a poem by Pooja Vrat

स्त्रियाँ, कुछ भी ज़ाया नहीं जाने देतीं।
वो सहेजती हैं,
सम्भालती हैं,
ढकती हैं,
बाँधती हैं,
उम्मीद के आख़िरी छोर तक।
कभी तुरपाई कर के,
कभी टाँका लगा के,
कभी धूप दिखा के,
कभी हवा झला के,
कभी छाँटकर,
कभी बीनकर,
कभी तोड़कर,
कभी जोड़कर,
देखा होगा ना
अपने ही घर में उन्हें
ख़ाली डब्बे जोड़ते हुए!
बची थैलियाँ मोड़ते हुए!
सबेरे की रोटी शाम को खाते हुए!
बासी सब्जी में तड़का लगाते हुए!
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए!
बचे हुए से अपनी थाली सजाते हुए!
फटे हुए कपड़े हों,
टूटा हुआ बटन हो,
फफूँदी लगा अचार हो,
सीले हुए पापड़ हों,
घुन लगी दाल हो,
गला हुआ फल हो,
मुरझाई हुई सब्जी हो,
या फिर
तकलीफ़ देता ‘रिश्ता’
वो सहेजती हैं
सम्भालती हैं
ढकती हैं
बाँधती हैं
उम्मीद के आख़िरी छोर तक…
पर,
याद रखना
वो जिस दिन मुँह मोड़ेंगी
तुम बर्बादी देखोगे।

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