चाबियाँ थमा
बना दिया गया मुझे मालकिन
और मैं इस भुलावे मैं आ
तालों में उलझती रही, दिन-ब-दिन
रसोई से शयनकक्ष तक
घुमाती रही
कर्तव्यों की चाबियाँ,
लगाती रही ताले
अपनी आदतों, अरमानों पर,
प्रगति के पायदानों पर,
कभी आँसू,
और कभी मुस्कानों पर
धीरे-धीरे यूँ ही
घुटन बढ़ती रही,
समझने लगी
कि इन चाबियों से
क़ैद करती जा रही हूँ
ख़ुद को कहीं
अचानक एक दिन
जब छटपटाती हूँ,
अपने लगाए इन बंधनों को
तोड़ने की हिम्मत जुटाती हूँ,
वही चाबियाँ बार-बार घुमाती हूँ
हताश-निराश हो
आख़िर हार जाती हूँ
जब होश में आती हूँ
यही सवाल दोहराती हूँ—
कर्तव्यों की चाबियों से
अधिकारों के ताले
क्यों नहीं खोल पाती हूँ
क्यों नहीं खोल पाती हूँ…
ममता पंडित की कविता 'चक्रव्यूह'