Tag: bhartendu harishchandra

bhartendu harishchandra

जगत में घर की फूट बुरी

जगत में घर की फूट बुरी। घर की फूटहिं सो बिनसाई, सुवरन लंकपुरी। फूटहिं सो सब कौरव नासे, भारत युद्ध भयो। जाको घाटो या भारत मैं, अबलौं...
bhartendu harishchandra

ऊधो जो अनेक मन होते

ऊधो जो अनेक मन होते तो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते। एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान। एक सों श्याम...
bhartendu harishchandra

भारत-दुर्दशा

रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥ सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो। सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥ सबके...
bhartendu harishchandra

परदे में क़ैद औरत की गुहार

लिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाय नाहीं देत्यो। सैयाँ फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो॥ लहँगा दुपट्टा नीको न लागै। मेमन का गाउन मँगाय नाहीं देत्यो॥ वै गोरिन हम रंग सँवलिया। नदिया प...
bhartendu harishchandra

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं मगर दाग़-ए-जिगर पर सूरत-ए-लाला लहकते हैं नसीहत है अबस नासेह बयाँ नाहक़ ही बकते हैं जो बहके...
Gopal Ram Gahmari

भारतेंदु हरिश्चंद्र

जे सूरजते बढ़ि गए, गरजे सिंह समान तिनकी आजु समाधि पर, मूतत सियरा खान - भारतेंदु मैं सन् 1879 ई में गहमर स्कूल से मिडिल वर्नाक्यूलर...
bhartendu harishchandra

दशरथ विलाप

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे। बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था। छिपाई है कहाँ...
bhartendu harishchandra

लखनऊ

स्टेशन कान्हपुर का तो दरिद्र सा है पर लखनऊ का अच्छा है। लखनऊ के पास पहुंचते ही मसजिदों के ऊंचे कंगूर दूर ही से दिखते हैं, पर नगर में प्रवेश करते ही एक बड़ी बिपत आ पड़ती है। वह यह है कि चुंगी के राक्षसों का मुख देखना होता है। हम लोग ज्यों ही नगर में प्रवेश करने लगे जमदूतों ने रोका। सब गठरियों को खोल खोल के देखा, जब कोई वस्तु न निकसी तब अंगूठियों पर (जो हम लोगों के पास थीं) आ झुके, बोले इसका महसूल दे जाओ।
bhartendu harishchandra

चने का लटका

चना जोर गरम। चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।। चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।। चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।। चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं...
bhartendu harishchandra

चूरन का लटका

"चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात। चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता। चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।" भारतेंदु हरिश्चंद्र का रचनाकाल 1857 की क्रांति के बाद का रहा, जब अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ कुछ भी कहना लोगों को महंगा पड़ जाता था.. ऐसे में भारतेंदु ने फिर भी हास्य व्यंग्य का सहारा लेकर अंग्रेज़ी शासन की खूब आलोचना की.. यह आलोचना ही आगे चलकर राष्ट्रीय चेतना के लेखन का आधार बनी.. पढ़िए यह कविता भारतेंदु के नाटक 'अंधेर नगरी चौपट राजा' से!
bhartendu harishchandra

उर्दू का स्यापा

हिन्दी-उर्दू के झगड़े के शुरूआती दिनों में कुछ लेखक और कवि अति उत्साह और उत्तेजना में हिन्दी-उर्दू पर काफी व्यंग्य किया करते थे! उन्हीं में से एक व्यंग्य कविता 'उर्दू का स्यापा' भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखी थी, जिसके नाम से ही उसके कथन का अनुमान लगाया जा सकता है.. आज जब ये दोनों भाषाएँ साथ फल-फूल रही हैं, इस कविता को हमारे साहित्य के इतिहास में छुपी एक चुहल से ज्यादा नहीं लिया जाना चाहिए! :)
bhartendu harishchandra

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है

'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' - भारतेंदु हरिश्चंद्र आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को...
कॉपी नहीं, शेयर करें! ;)