Tag: जाति

Adam Gondvi

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर मर गई फुलिया बिचारी एक...
Abstract, Love, Couple

पुनरावर्तन

कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़केगा हर बार की तरह ऐसे ही सुलगते पलाश रक्त की चादर ओढ़े चीलों और गिद्धों को खींच ले आएँगे घेरकर मारे जाने...
Om Prakash Valmiki

सदियों का संताप

दोस्‍तो! बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष इस इंतज़ार में कि भयानक त्रासदी का युग अधबनी इमारत के मलबे में दबा दिया जाएगा किसी दिन ज़हरीले पंजों समेत फिर हम सब एक जगह...
Asangghosh

‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’ से कविताएँ

'अब मैं साँस ले रहा हूँ' से कविताएँ स्वानुभूति मैं लिखता हूँ आपबीती पर कविता जिसे पढ़ते ही तुम तपाक से कह देते हो कि कविता में कल्पनाओं को कवि ने...
Suresh Jinagal

सुरेश जिनागल की कविताएँ: अक्टूबर 2020

ललेश्वरी बर्फ़ का सीना चीरकर उगे चिनार के नीचे बैठकर आग का कोई गीत गाती स्त्री सदियों की बर्फ़ को पिघला रही है उसकी ज़िद, उसका साहस...
Rajni Tilak

मीठी अनुभूतियों को

हमने मधुर स्मृतियों और मीठी अनुभूतियों को इन कठोर हाथों से, तुम्हारे लिए हृदय से खींच बिखेरा है हमारे लहू के एक-एक क़तरे ने तुम्हारे खेत की बंजर भूमि...
Sushila Takbhore

खोज की बुनियाद

यह रहस्य तो नहीं खोज की बुनियाद है आज फिर मैं उड़ने लगी हूँ बे-पर बंजर ज़मीन पर फूटे हैं अंकुर आस की दूब चरने लगा है मन का मिरग किस दिशा से बांधोगे तुम इसे काल का...
Thumb, Revolution, History, Red, Blood

इतिहास

वक़्त की रेशमी रस्सी मेरे हाथ से फिसल रही थी इतिहास का घोड़ा उसे विपरीत दिशा में खींच रहा था तुम्हें यह कितना बड़ा मज़ाक़ लगता था जब मैं उसे अपनी तरफ़ खींचता था रस्सी...
Jaiprakash Leelwan

क्या-क्या मारोगे?

उम्मीदों सपनों पत्थरों लोगों फूलों तितलियों तारों को मारोगे? मरीज़ों दवाओं स्त्रियों दलितों मछलियों झीलों समुन्दरों को मारोगे? हिरणों मेमनों मौसमों जंगलों पर्वतों नदियों पुलों को मारोगे? पलों दिनों हफ़्तों महीनों सालों युगों सदियों को मारोगे? शब्दों अक्षरों वर्णों स्वरों शैलियों भाषाओं व्याकरणों को मारोगे? रातों साँसों चुम्बनों उमंगों ख़्वाबों भावनाओं विचारों कविताओं को मारोगे? बच्चों रोटियों घरों माँओं बहिनों भाइयों साथियों को मारोगे? किताबों कार्यों कोंपलों कोमलताओं कौमार्य कमेरों क्रान्ति को मारोगे? समय समता सरोकार सवालों सन्ध्या सुबह साहित्य को मारोगे? जन्म जंगल ज़ुबान जीभ ज़मीन जनता जनतन्त्र को मारोगे? आज आज़ादी अधिकार अदब आदमी आन्दोलन आम्बेडकरों को मारोगे? मन्तव्यों मक़सदों मतलबों मनुष्यों मुद्दों मसलों मंज़िलों को...
Sharankumar Limbale

दलित-लेखक ज़िन्दगी-भर झोंपड़ी में ही रहें, यह कैसा दुराग्रह?

शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' से 'दलित-आत्मकथा' एक बहुचर्चित साहित्य-विधा है। दलित-कविता तथा समीक्षा के कारण दलित-साहित्य का विकास हुआ, तो दलित-आत्मकथा के कारण यह...
Joseph Macwan

रोटले को नज़र लग गई

सुबह के कामों से फ़ारिग होते ही उसका पहला काम होता रोटला बनाना। वह हर रोज़ गिनकर चार रोटला बनाती; बाजरी के आटे में...
Malkhan Singh

मैं आदमी नहीं हूँ

1 मैं आदमी नहीं हूँ स्साब जानवर हूँ दोपाया जानवर जिसे बात-बात पर मनुपुत्र—माँ चो, बहन चो, कमीन क़ौम कहता है। पूरा दिन बैल की तरह जोतता है मुट्ठी-भर सत्तू मजूरी में देता है। मुँह...
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