Tag: जाति
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर
मर गई फुलिया बिचारी एक...
पुनरावर्तन
कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़केगा
हर बार की तरह ऐसे ही सुलगते पलाश
रक्त की चादर ओढ़े
चीलों और गिद्धों को खींच ले आएँगे
घेरकर मारे जाने...
सदियों का संताप
दोस्तो!
बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत
फिर हम सब
एक जगह...
‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’ से कविताएँ
'अब मैं साँस ले रहा हूँ' से कविताएँ
स्वानुभूति
मैं लिखता हूँ
आपबीती पर कविता
जिसे पढ़ते ही
तुम तपाक से कह देते हो
कि कविता में कल्पनाओं को
कवि ने...
सुरेश जिनागल की कविताएँ: अक्टूबर 2020
ललेश्वरी
बर्फ़ का सीना चीरकर उगे चिनार के नीचे बैठकर आग का कोई गीत गाती स्त्री सदियों की बर्फ़ को पिघला रही है
उसकी ज़िद, उसका साहस...
मीठी अनुभूतियों को
हमने मधुर स्मृतियों
और मीठी अनुभूतियों को
इन कठोर हाथों से, तुम्हारे लिए
हृदय से खींच बिखेरा है
हमारे लहू के एक-एक क़तरे ने
तुम्हारे खेत की बंजर भूमि...
खोज की बुनियाद
यह
रहस्य तो नहीं
खोज की बुनियाद है
आज फिर
मैं
उड़ने लगी हूँ बे-पर
बंजर ज़मीन पर
फूटे हैं
अंकुर
आस की दूब चरने लगा है
मन का मिरग
किस दिशा से बांधोगे तुम
इसे
काल का...
इतिहास
वक़्त की रेशमी रस्सी
मेरे हाथ से
फिसल रही थी
इतिहास का घोड़ा
उसे विपरीत दिशा में
खींच रहा था
तुम्हें
यह कितना बड़ा मज़ाक़ लगता था
जब मैं उसे अपनी तरफ़ खींचता था
रस्सी...
क्या-क्या मारोगे?
उम्मीदों
सपनों
पत्थरों
लोगों
फूलों
तितलियों
तारों को मारोगे?
मरीज़ों
दवाओं
स्त्रियों
दलितों
मछलियों
झीलों
समुन्दरों को मारोगे?
हिरणों
मेमनों
मौसमों
जंगलों
पर्वतों
नदियों
पुलों को मारोगे?
पलों
दिनों
हफ़्तों
महीनों
सालों
युगों
सदियों को मारोगे?
शब्दों
अक्षरों
वर्णों
स्वरों
शैलियों
भाषाओं
व्याकरणों को मारोगे?
रातों
साँसों
चुम्बनों
उमंगों
ख़्वाबों
भावनाओं
विचारों
कविताओं को मारोगे?
बच्चों
रोटियों
घरों
माँओं
बहिनों
भाइयों
साथियों को मारोगे?
किताबों
कार्यों
कोंपलों
कोमलताओं
कौमार्य
कमेरों
क्रान्ति को मारोगे?
समय
समता
सरोकार
सवालों
सन्ध्या
सुबह
साहित्य को मारोगे?
जन्म
जंगल
ज़ुबान
जीभ
ज़मीन
जनता
जनतन्त्र को मारोगे?
आज
आज़ादी
अधिकार
अदब
आदमी
आन्दोलन
आम्बेडकरों को मारोगे?
मन्तव्यों
मक़सदों
मतलबों
मनुष्यों
मुद्दों
मसलों
मंज़िलों को...
दलित-लेखक ज़िन्दगी-भर झोंपड़ी में ही रहें, यह कैसा दुराग्रह?
शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' से
'दलित-आत्मकथा' एक बहुचर्चित साहित्य-विधा है। दलित-कविता तथा समीक्षा के कारण दलित-साहित्य का विकास हुआ, तो दलित-आत्मकथा के कारण यह...
रोटले को नज़र लग गई
सुबह के कामों से फ़ारिग होते ही उसका पहला काम होता रोटला बनाना। वह हर रोज़ गिनकर चार रोटला बनाती; बाजरी के आटे में...
मैं आदमी नहीं हूँ
1
मैं आदमी नहीं हूँ स्साब
जानवर हूँ
दोपाया जानवर
जिसे बात-बात पर
मनुपुत्र—माँ चो, बहन चो,
कमीन क़ौम कहता है।
पूरा दिन
बैल की तरह जोतता है
मुट्ठी-भर सत्तू
मजूरी में देता है।
मुँह...