Tag: जाति
भयानक है छल : भाग-1
धूप तेज़ होने लगी थी
आसमान में
तैरने लगा
हल्का-सा एक बादल
सुदूर जंगल से
घर लौटते हुए लकड़ी
का गठ्ठर सिर पर उठाए
तातप्पा के भीतर
गहराता जा रही है अपनी...
मुझे ग़ुस्सा आता है
मेरा माँ मैला कमाती थी
बाप बेगार करता था
और मैं मेहनताने में मिली जूठन को
इकट्ठा करता था, खाता था।
आज बदलाव इतना आया है कि
जोरू मैला...
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें
धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए
पानी तक न लेने दिया जाए कुएँ से
दुत्कारा-फटकारा जाए चिलचिलाती दोपहर में
कहा जाए तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाए खाने...
समानान्तर इतिहास
इतिहास
राजपथ का होता है
पगडण्डियों का नहीं!
सभ्यताएँ
बनती हैं इतिहास
और सभ्य
इतिहास पुरुष!
समय उन बेनाम
क़दमों का क़ायल नहीं
जो अनजान
दर्रों जंगलों कछारों पर
पगडण्डियों की आदिम लिपि—
रचते हैं
ये कीचड़-सने कंकड़-पत्थर...
शम्बूक का कटा सिर
जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्ता लेना चाहा,
मेरे कानों में
भयानक चीत्कारें गूँजने लगीं
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों...
घर की चौखट से बाहर
दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
झाँकती औरत
दरवाज़े से बाहर देखती है-
गली-मोहल्ला, शहर, संसार!
आँख, कान, विचार स्वतन्त्र हैं
बन्धन हैं सिर्फ़ पाँव में
कुल की लाज
सीमाओं का...
गाली
वफ़ा के नाम पर
अपने आप को
एक कुत्ता
कहा जा सकता है,
मगर
कुतिया नहीं।
कुतिया शब्द सुनकर ही लगता है
यह एक गाली है।
क्या इसलिए कि वह स्त्री है
उसका...
टैगोर
'Tagore', a poem by Sheoraj Singh Bechain
कबीर की सौ कविताएँ
रैदास के
शब्दों का सारा ज्ञान
संगीत की साधना
गीतांजलि का
अद्भुत अवदान
सब एक ओर
सब बेमतलब
यदि मानव
को अछूत करने...
माँ
अनुवाद : निशिकांत ठकार
दुःख इस बात का नहीं है कि माँ चल बसी
हर किसी की माँ कभी न कभी मर जाती है
दुःख इस बात...
मणिकर्णिका – डॉ. तुलसीराम
डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा (दूसरा खण्ड) 'मणिकर्णिका' से किताब अंश | Book Excerpt from 'Manikarnika' by Dr. Tulsiram
मैं उस मकान में लगभग डेढ़ साल...
कवच
'Kawach', a story by Urmila Pawar
अनुवाद: कौशल्या बैसंत्री
सवेरे, अँधेरे में उठते ही इन्दिरा का मुँह चूड़ियों की तरह बजने लगा। रुक-रुककर वह गौन्या को...
मेरी प्रिय कविता
'Meri Priya Kavita', a poem by Namdeo Dhasal
मराठी से अनुवाद: सूर्यनारायण रणसुभे
मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतन्त्र द्वीप
मेरी प्रिय कविता, तू चलती रह सामान्य...