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राम दयाल मुण्डा की कविताएँ
उनींद
नदी की बाँहों में पड़ा पहाड़
सो रहा है
और
पूछे-अनपूछे प्रश्नों के जवाब
बड़बड़ा रहा है।
अनमेल
लोगों के कहने से
कह तो दिया कि साथ बहेंगे
पर मन नहीं मिल...
साथ-साथ, जाड़े की एक शाम
साथ-साथ
हमने साथ-साथ आँखें खोलीं,
देखा बालकनी के उस पार उगते सूरज को,
टहनी पर खिले अकेले गुलाब पर
साथ-साथ ही पानी डाला,
पीली पड़ चुकी पत्तियों को आहिस्ता से किया विलग,
साथ-साथ देखी टीवी पर मिस्टर एण्ड
मिसिज़...
ज्योति शर्मा की कविताएँ
स्त्री
मिट्टी, पानी, अग्नि और गति से बनी
स्त्री देह, बिछुवे से खींचती पृथ्वी की
उर्जा, सिन्दूर से खींचा सारा आकाश
सूर्य को टिका लिया माथे पर।
ईद के चाँद...
हे मेरी तुम
हे मेरी तुम...
गंगा, गगन और तुम
तीनों स्थिर क्यों हो
क्यों खामोश हो
अपने बदन पर
गर्द-ओ-ग़ुबार को अटते हुए
कुछ बोलते क्यों नहीं
उगते जख्मों पर
समझता हूँ
तुम्हारे कोलाज़ को
मनअन्तस्...
मंदिर वाली गली
"अब दूर-दूर के यात्री अपना लिबास कहाँ छोड़ आएं, राय साहिब और उन बेचारों के चेहरे मुहरे जैसे हैं वैसे ही तो रहेंगे। बंगाली, महाराष्ट्री, गुजराती और मद्रासी अलग-अलग हैं तो अलग-अलग ही तो नज़र आएँगे। अपना-अपना रूप और रंग-ढंग घर में छोड़कर तो तीर्थ यात्रा पर आने से रहे।"
जहाज़ जा रहा है
"जहाज के पेट में कोलाहल है, पीठ पर कोलाहल है। निचले हिस्से में थर्ड क्लास के यात्री खचाखच भरे हैं, ऊपर डेक पर कुछ सुफेदपोश बाबू चहलकदमी कर रहे हैं। यह जहाज नहीं जानता कि वह हमारे समाज का कितना सही प्रतिनिधित्व करता है, वह तो बढ़ा चला जा रहा है।
यह क्या जल रही है? चिता, चिता, चिता? हाँ, तीन चितायें एक पक्ति में! लोग इतना मरते हैं? किन्तु, शायद आप जीवितों की गिनती भूल गये है। तो भी मरण कितना निठुर, जीवन कितना मधुर। और, जीवन-मरण दोनों से उदासीन वीतराग-सा यह जहाज चला जा रहा है।"
शब्दचित्र यानी चित्र को खींचकर शब्दों में उकेर देना। इस शब्दचित्र के मध्य में है एक जहाज और बाकी सब आसपास। प्रत्येक पैराग्राफ में अत्यंत सुन्दर और सूक्ष्म चित्रण और सभी के अंत में 'जहाज जा रहा है...'
रेड्यूस्ड टू अ चांस
गंगा घाट पर
खेलते खेलते
जब हम डूबने से बच गए थे
तुम्हें याद है
हम कितना हँसे थे
वहीं रेत पर लेट कर
बहुत देर तक हँसते रहे थे
और उन अंकल...