Tag: Naresh Mehta
कवच
मैं जानता हूँ तुम्हारा यह डर
जो कि स्वाभाविक ही है, कि
अगर तुम घर के बाहर पैर निकालोगे
तो कहीं वैराट्य का सामना न हो जाए,
तुम्हें...
घर की ओर
वह—
जिसकी पीठ हमारी ओर है
अपने घर की ओर मुँह किये जा रहा है
जाने दो उसे
अपने घर।
हमारी ओर उसकी पीठ—
ठीक ही तो है
मुँह यदि होता
तो...
प्रतिइतिहास और निर्णय
कविता अंश: प्रवाद पर्व
महानुभावो!
उस अनाम साधारण जन के
तर्जनी उठाने में
सम्भव है
कोई औचित्य न हो
परन्तु
चूँकि वह तर्जनी अकेली है
अतः उसकी सत्यता पर सन्देह भी स्वाभाविक...
वह मर्द थी
"छिः छिः, कितनी गन्दी औरत है यह जो रोटियाँ बेल रही है। अगर औरत है तो। और मुझे शादीलाल आदमी अच्छा नहीं लगा। अपने होटल में एक तो औरत रखता है और फिर इतनी गन्दी... अरे, ये होते ही ऐसे हैं। शायद ये औरत भी इस होटल की एक तरकारी हो।"
माँ
"मैं नहीं जानता
क्योंकि नहीं देखा है कभी-
पर, जो भी
जहाँ भी चिंता भरी आँखें लिये निहारता होता है
दूर तक का पथ-
वही,
हाँ, वही है माँ!"