Tag: Nirmala Putul

Nirmala Putul

आख़िर कहें तो किससे कहें

वे कौन लोग थे सिद्धो-कान्हू जो अँधेरे में सियार की तरह आए और उठा ले गए तुम्हारे हाथों से तीर-धनुष तुम्हारी मूर्ति तोड़ी वे कौन लोग थे, तुम...
Nirmala Putul

बाहामुनी

तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट कैसी विडम्बना है कि ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाइयाँ और...
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अगर तुम मेरी जगह होते

ज़रा सोचो, कि तुम मेरी जगह होते और मैं तुम्हारी तो, कैसा लगता तुम्हें? कैसा लगता अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में होता तुम्हारा गाँव और रह रहे होते तुम घास-फूस...
Nirmala Putul

कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम

तुम्हारे पास थोड़ा-सा वक़्त है... अगर नहीं तो निकालो थोड़ी फ़ुर्सत याद करो अपने उन तमाम पत्रों को जिससे बहुत कुछ बचाने की बात करते रहे हो...
Nirmala Putul

तुम्हें आपत्ति है

यह कविता यहाँ सुनें: https://youtu.be/E_BL2EGWzZc तुम कहते हो मेरी सोच ग़लत है चीज़ों और मुद्दों को देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा आपत्ति है तुम्हें मेरे विरोध जताने के तरीक़े पर तुम्हारा...
Nirmala Putul

वह जो अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है

एक स्त्री पहाड़ पर रो रही है और दूसरी स्त्री महल की तिमंज़िली इमारत की खिड़की से बाहर झाँककर मुस्कुरा रही है ओ, कविगोष्ठी में स्त्रियों पर कविता पढ़ रहे...
Nirmala Putul

अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री

यह कैसी विडम्बना है कि हम सहज अभ्यस्त हैं एक मानक पुरुष-दृष्टि से देखने स्वयं की दुनिया मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते मुक्त होना चाहती हूँ...
Nirmala Putul

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो पुरुष से भिन्न एक स्त्री का एकान्त? घर-प्रेम और जाति से अलग एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन के बारे में बता सकते हो तुम? बता...
Nirmala Putul

क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए

क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए? एक तकिया कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया कोई खूँटी कि ऊब, उदासी, थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी या...
Nirmala Putul

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा

बाबा! मुझे उतनी दूर मत ब्याहना जहाँ मुझसे मिलने जाने की ख़ातिर घर की बकरियाँ बेचनी पड़ें तुम्हें मत ब्याहना उस देश में जहाँ आदमी से ज़्यादा ईश्वर बसते हों जंगल नदी...
Nirmala Putul

आदिवासी लड़कियों के बारे में

ऊपर से काली भीतर से अपने चमकते दाँतों की तरह शान्त धवल होती हैं वे वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी निश्छल हँसी तब झर-झराकर झरते हैं पहाड़ की कोख...
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