Tag: Pranjal Rai
विदा ले चुके अतिथि की स्मृति
मैं विदा ले चुका अतिथि (?) हूँ
अब मेरी तिथि अज्ञात नहीं, विस्मृत है।
मेरे असमय प्रस्थान की ध्वनि
अब भी करती है कोहरे के कान में...
अंधेरे के नाख़ून
एक छोर से चढ़ता आता है
रोशनी को लीलता हुआ एक ब्लैक होल,
अंधेरे का नश्तर चीर देता है आसमान का सीना,
और बरस पड़ता है बेनूर...
नदी, स्वप्न और तुम्हारा पता
मैं जग रहा हूँ
आँखों में गाढ़ी-चिपचिपी नींद भरे
कि नींद मेरे विकल्पों की सूची में खो गयी है कहीं।
जिस बिस्तर पर मैं लेटा
चाहे-अनचाहे मेरी उपस्थिति...
नया कवि: कविता से सम्वाद
ऐसा समय जहाँ मनुष्य की आकांक्षाओं के पाँव
बढ़ते ही जा रहे हैं स्वर्ग की ओर
और धँसता जा रहा है उसका शीश पाताल में,
कई ईसामसीह...
बस यही है पाप
पटरियों पर रोटियाँ हैं
रोटियों पर ख़ून है,
तप रही हैं हड्डियाँ,
अगला महीना जून है।
सभ्यता के जिस शिखर से
चू रहा है रक्त,
आँखें आज हैं आरक्त,
अगणित,
स्वप्न के संघर्ष...
कोरोना काल में
बैठ गयी है जनपथ की धूल
गंगा कुछ साफ़ हो गयी है
उसकी आँख में अब सूरज बिल्कुल साफ़ दिखने लगा है।
पेड़ों के पत्ते थोड़े और हरिया गए...
विस्थापित अन्तरावकाश
जीवन के जिस अन्तरावकाश में
सुनी जा सकती थी
धरती और चाँद की गुफ़्तगू,
वहाँ मशीनी भाषाओं में हुए
कई निर्जीव सम्वाद।
जहाँ तराशा जा सकता था
प्रेम का नया...
शब्द-सम्वाद
'Shabd Samvad', a poem by Pranjal Rai
वे शब्द
जिन्हें मैं अपनी अकड़ी हुई जीभ के आलस्य का
प्रखर विलोम मानता था,
जो अपनी शिरोरेखाओं पर
ढोते थे मेरे...
पर्यवसान
जब रोते हुए पैदा हुआ था
पहला बच्चा सृष्टि में
तो पैदा हुई थी सृष्टि में 'लय'
उस पहली निश्छल और पवित्र रुलाई में
सृष्टि का सबसे मधुर...
हमारा समय एक हादसा है
'Humara Samay Ek Hadsa Hai', a poem by Pranjal Rai
देवताओं के मुकुट सब गिर गए हैं
आधे टूटे पड़े हैं- धूल में नहाए हुए,
दुराग्रहों के...
औसत से थोड़ा अधिक आदमी
बस्ती की हर चीख़
खरोंच देती है मेरी चेतना को,
चींटियों के शोकगीत अब भी
मेरी नींद के विन्यास को बाधित करते हैं।
ईराक़ में फटने वाले हर बम...
जन्मदिन के सिरहाने
'Janmdin Ke Sirhane', a poem by Pranjal Rai
समय की धार पर
फिसलती जा रही है उम्र
धीरे-धीरे!
अँधेरे रास्तों से
गुज़रते हुए
दृष्टि की रोशनी
नाप ही लेती है
रास्तों की...