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Premchand

लांछन

"दोनों इस तरह टूटकर गले मिले हैं कि मैं तो लाज के मारे गड़ गयी। ऐसा चूमा-चाटी तो जोरू-खसम में नहीं होती। दोनों लिपट गये। लौंडा तो मुझे देखकर कुछ झिझकता था; पर तुम्हारी मिस साहब तो जैसे मतवाली हो गई थीं।"
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आखिरी हीला

पत्नी गाँव के घर में हैं और अपने पति से आग्रह कर रही हैं कि आकर उन्हें ले जाएँ, लेकिन लेखक महोदय कोई न कोई बहाना करके टालते आ रहे हैं.. लेकिन अंत में गलती से एक ऐसा आखिरी हीला (बहाना) बना देते हैं कि चारों खाने चित्त! प्रेमचंद ने अपने लेखन में उद्देश्य को सदैव ऊपर माना, इसलिए यह चुटीलापन जैसा इस कहानी में है, उनके अधिकांश लेखन में नहीं मिलता, लेकिन जहाँ मिलता है, मोहित किए बिना नहीं रहता। पढ़िए!
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तावान

तावान यानी जुर्माना! विलायती कपड़े बेचने पर.. असहयोग आंदोलन में साथ न देने पर.. चाहे घर में एक समय का खाना भी न हो, घर के लोग बीमार हों, भूखो मरने की नौबत आयी हो.. पहली झलक में यह अमानवीय लगता है लेकिन इस कहानी का अंत बताता है कि उस समय जनता के सामने भी केवल एक ही लक्ष्य था- आज़ादी! और इस लक्ष्य को पाने के लिए वह व्यक्तिगत सुखों से ऊपर उठने को तैयार थी.. तैयार हो भी क्यों न.. उस समय के नेता जनता के साथ सड़कों पर चलते थे, मूर्तियों के रूप में स्थापित नहीं होते थे..
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घासवाली

"क्या घाट के किनारे मुझसे कहीं सुंदर औरतें नहीं घूमा करतीं? मैं उनके तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उसमें से किसी से क्यों नहीं 'दया' माँगते! क्या उनके पास दया नहीं है? मगर वहाँ तुम न जाओगे; क्योंकि वहाँ जाते तुम्हारी छाती दहलती है। मुझसे दया माँगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूँ, नीच जाति हूँ और नीच जाति की औरत जरा-सी घुड़की-धमकी व जरा-सी लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जायगी। इसीलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसी खतरानी के चरणों पर सिर रक्खो, तो मालूम हो कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है। फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।"
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गिला

"मेरी खुशामद भी खूब हो रही है, मेरे मैके वालों की प्रशंसा भी हो रही है, मेरे गृह-प्रबंध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा है। मैं इस महाशय की चाल समझ रही थी।" अपने भाई-भतीजों का पक्ष लेना, उनसे गलत बात पर भी न झगड़ना, फायदा उठाने वाले लोगों को दो टूक जवाब न दे पाना, जिनसे फायदा हो सकता है उनसे बनाकर न रखना और कुछ सवाल करें तो जवाब न सूझने पर बगलें झांकना.. ये लक्षण हैं इस कहानी के पुरुष के, और शिकायतें हैं इस कहानी की स्त्री की, लेकिन क्या ये लक्षण ज़्यादातर घरों में आज भी देखने को नहीं मिलते? क्या नयी पीढ़ी की अपनी पिछली पीढ़ी से यही शिकायतें नहीं रहतीं कि शर्म के कारण और 'कुटुंब' के नाम पर हम कब तक सहें? पढ़िए एक बहुत ही पठनीय और मज़ेदार कहानी जिसमें एक स्त्री अपने पति के बारे में यही सब गिले कर रही है..
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रसिक सम्पादक

धाँधली और अपने काम में बेईमानी हर जगह फैली है.. साहित्य में भी. कभी कुछ पूर्वाग्रहों के चलते अच्छे लोग भी नकार दिए जाते हैं तो कभी अपनी सोच, फायदे या समर्थन के लिए नाकाबिल लोग भी आगे पहुंचा दिए जाते हैं.. इस कहानी के रसिक सम्पादक की प्रवृत्ति भी कुछ ऐसी ही है, और सिर्फ इतना ही नहीं, और भी कई स्तरों पर समस्यात्मक!
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मनोवृत्ति

एक लड़की को पार्क में सोते हुए देखकर, उसके भले घर की लड़की होने से लेकर, वेश्या होने तक के कयास लगने लगते हैं.. और इन कयासों में तथाकथित 'भले' घर में पलने वाली मनोवृत्तियाँ भी बाहर आने लगती हैं..
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नादान दोस्त

केशव और श्यामा ने चिड़ियों के अंडे देखे तो उनकी देखभाल में जुट गए.. लेकिन ठहरे बच्चे ही.. उनकी एक गलती वे दोनों, खास तौर से केशव कभी नहीं भूल पाया.. क्या थी वह गलती और अगर आप केशव की जगह होते तो क्या वह गलती न करते? यह भी विडंबना है कि वर्तमान परिवेश में तो बच्चों को यह गलती करने का मौका भी न मिलेगा..
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कश्मीरी सेब

"आदमी बेइमानी तभी करता है जब उसे अवसर मिलता है। बेइमानी का अवसर देना, चाहे वह अपने ढीलेपन से हो या सहज विश्वास से, बेइमानी में सहयोग देना है।"
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पागल हाथी

एक पागल हाथी एक आठ-नौ बरस के लड़के के काबू में भला कैसे आ गया? स्नेह, दुलार और स्वछन्द भाव ही शायद इस सवाल के कुछ सम्भावित जवाब हैं..! पढ़िए इस बाल कहानी में! :)
Premchand

मेरी पहली रचना

उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर,...
Jainendra Kumar, Premchand

एक शांत नास्तिक संत: प्रेमचंद

मुझे एक अफ़सोस है, वह अफ़सोस यह है कि मैं उन्हें पूरे अर्थों में शहीद क्यों नहीं कह पाता हूँ! मरते सभी हैं, यहाँ...
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