Tag: Sahej Aziz
बंटू / दो हज़ार पचानवे
उसने शायद खाना नहीं खाया था।
रोज़ तो सो जाता था
दुबक के
फैल के
रेल प्लेटफ़ॉर्म पे
बेंच के नीचे।
क्यों सता रहा है आज उसे
बारिश का शोर
गीली चड्ढी और...
लकड़ी की आह
उमर ख़ालिद के नाम
बढ़ई का काठ कुरेदना
कड़घच्च कड़घच्च कड़घच्च
ऐसी तो आवाज़ नहीं करता
पर करता है जैसी भी
उसका सीधा नाता है
लकड़हारे के बीच जंगल में
अकेले...
लहू
ज़ख़्मी रॉनी की याद में
सबसे दुखद एहसास होता है
उसकी छुअन का याद आना
जो मर चुका है–
उसकी टाँग पे लगा लहू
आपका उसको छूना
उसका अकस्मात मुड़ के...
नींद क्यों रात-भर नहीं आती
रात को सोना
कितना मुश्किल काम है
दिन में जागने जैसा भी मुश्किल नहीं
पर, लेकिन तक़रीबन उतना ही
न कोई पत्थर तोड़ा दिन-भर
न ईंट के भट्ठे में...
चाबियाँ लैपटॉपों की
जैसे पागलों के सींग नहीं होते
ऐसे ही आज़ादों के पंख नहीं होते
पर देखा जाए
(ग़ौर से)
तो होते हैं
रंग स्वादों के
पेट भ्रष्टों के
जूते रईसों के
चीथड़े मुफ़लिसों...
इंट्रोस्पेक्शन
आसमाँ का पट कहाँ है
पट कहाँ है चाँद का
पट में छुप के बादलों के
एक सूरज ताकता
झाँके बुलबुल
पेड़ से छिप
कोपलों की आड़ ले
और मैं झाँकूँ
दूसरों में
बस के...
क्रांति: दो हज़ार पचानवे
हा हा हा हा हा हा
यह भी कैसा साल है
मैं ज़िंदा तो हूँ नहीं
पर पढ़ रहा है मुझको कोई
सोच रहा है कैसे मैंने
सोचा है तब...