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अपूर्ण प्रतीक्षा
“विदेश से आने में लाखों रुपये का खर्च पड़ता है सो मैं ही मना कर देती हूँ। क्या ज़रूरत है फालतू पैसे बर्बाद करने की। मैं सही सलामत हूँ ही और इनकी पेंशन से मेरा काम आराम से चल जाता है, पर बच्चे भी इतने ज़िद्दी ठहरे कि बिना पैसे भेजे मानते ही नहीं।”
प्रतीक्षा और प्रतिफल
'Prateeksha Aur Pratiphal', a poem by Rahul Boyal
हम हँसने के तमाम मौक़ों से चूकते गये
ये जानते हुए कि हँसना झुर्रियों से लड़ना है।
या तो...
इंतज़ार
एक ज़माना गुज़र गया
जाते-जाते कह गया
चाँदी उतर आई है बालों पर
थक गई होगी,
बुन क्यों नहीं लेती ख्यालों की चारपाई?
सुस्ता ले ज़रा
ख्वाबों की चादर ओढ़
कुनकुनी...
अपने अपने प्रिय
"एक दिन
इजाज़त मिली सबको
अपना प्रिय चुनने की..."
प्रेम ने क्या चुना?
कितना वक़्त लगाया तुमने आने में
कितना वक़्त लगाया तूने आने में
उलझे मन के धागों को सुलझाने में
कुछ छोटी सी बातों को ठुकराने में
एक ज़रा सी बात पे रूठे इस...
सूर्योदय की प्रतीक्षा में
वे सूर्योदय की प्रतीक्षा में
पश्चिम की ओर
मुॅंह करके खड़े थे
दूसरे दिन जब सूर्योदय हुआ
तब भी वे पश्चिम की ओर
मुॅंह करके खड़े थे
जबकि सही दिशा-संकेत...