किराए का मकान तलाश करना रामवीर सिंह के लिए छोटी समस्या नहीं थी। एक सप्ताह से वह एक गेस्ट हाऊस में रह रहे थे। हालाँकि शहर में उपलब्ध होटलों की तुलना में गेस्ट-हाऊस बहुत महँगा नहीं था लेकिन गेस्ट हाऊस में रहने की एक सीमा थी, अधिक समय तक वहाँ नहीं रहा जा सकता था। दूसरे, गेस्ट हाऊस में भोजन आदि की सुविधा नहीं थी। चाय, खाना सबके लिए उनको बाहर किसी होटल या ढाबे पर जाना पड़ता था। एक बार दफ्तर में आ जाने पर रामवीर सिंह का बाहर जाने को मन नहीं करता था। इसलिए कई बार वह खाना खाने की बजाए फल आदि खाकर ही काम चला लेते थे।

रामवीर सिंह एक सरकारी अधिकारी थे। बहुत से लोगों के साथ उनका रोज सम्पर्क होता था। ऐसे में कोई उन्हें ढाबे पर खाना खाते देखेगा तो क्या सोचेगा। विभाग का कोई अधिकारी या कर्मचारी भी उसे देख सकता है। उनके मन में यह भाव भी हमेशा बना रहता था। फोन ही उन्हें सबसे बड़ी दिक्कत महसूस होती थी। किसी से फोन पर कोई बात करनी हो तो उसके लिए उनको गेस्ट-हाऊस के स्वागत पटल या किसी टेलीफोन बूथ पर जाना पड़ता है। इसके अलावा, रामवीर सिंह को लिखने-पढ़ने की आदत थी और उन दिनों वह प्रशासन और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के अन्तर्सम्बन्धों पर एक पुस्तक लिख रहे थे। उसके लिए भी उनकी तन्मयता नहीं बन पा रही थी। लिखने के लिए जिस तरह का वातावरण वह चाहते थे वह उनको यहाँ नहीं मिल पा रहा था। इन सब कारणों से गेस्ट-हाऊस में रहना उनको काफी असुविधाजनक हो रहा था।

एक सप्ताह से रामवीर सिंह अपने लिए एक सुविधाजनक मकान किराए पर ढूंढ रहे थे। ऐसा मकान जो ज्यादा बड़ा न हो, किन्तु दो कमरों का सैट ज़रूर हो, जिनमें एक कमरा बैडरूम और दूसरा ड्राइंग रूप के रूप में काम आ सके। और सबसे बड़ी बात यह है कि मकान में किसी तरह का शोर या डिस्टर्बेन्स न हो ताकि उनका लिखना-पढ़ना निर्बाध चल सके। कई मकान उनको पसन्द नहीं आए थे और जो एक-दो पसन्द आए थे उनके मकान मालिकों ने ऐसी-ऐसी शर्ते रखी थीं जो उनको स्वीकार्य नहीं थीं।

दूसरे शहरों की तरह यह शहर भी जातिवाद से मुक्त नहीं था। जातीय भेदभाव और छुआछूत को वह इस एक सप्ताह के भीतर अच्छी तरह देख चुके थे। हालाँकि जातीय घृणा और छुआछूत का व्यवहार दलितों के साथ होता था और वह भी दलित थे लेकिन उनके साथ ऐसा कोई व्यवहार अभी तक नहीं हुआ था। उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि उनके नाम से उनकी जाति की कोई गन्ध नहीं निकलती थी जिससे यह पता चलता कि वह दलित हैं। दूसरे, वह उच्च-शिक्षित और अधिकारी थे, उनके रहन-सहन और खानपान का परिष्कृत ढंग था। तीसरे, वह किसी बस्ती या कालोनी में न रहकर अभी तक गेस्ट हाऊस में रह रहे थे।

रामवीर सिंह ने जो भी मकान अभी तक देखे थे संयोग या असंयोग से वे सब ब्राह्मण या बनियों के थे ओर मकान मालिकों द्वारा रखी गई शर्तों में अन्य शर्तों के अलावा यह कॉमन शर्त थी कि मकान में माँस, मछली, अण्डा आदि कुछ भी नहीं पकाया जाएगा और न ही खाया जाएगा। रामवीर सिंह अण्डा-माँस खाने के आदी थे। उनका लगभग प्रत्येक संडे ‘मटन डे’ होता था। इसलिए मकान मालिकों की अण्डा-माँस नहीं खाने की शर्त उनको असुविधाजनक लगती थी और वह इस शर्त को स्वीकार नहीं करते थे। लेकिन गेस्ट हाऊस को खाली करने का समय आ गया था। इसलिए उन्होंने अपने आपसे समझौता कर यह निश्चय कर लिया कि वह अण्डा-माँस नहीं खाने की शर्त को मान लेंगे। और जो भी ठीक-ठाक सा मकान मिल जाएगा, उसमें शिफ्ट कर जाएँगे।

शाम को दफ्तर से निकलकर वह दफ्तर के एक साथी के साथ एक मकान देखने गए। मकान किसी गुप्ता का था। मकान दो मंजिला था। नीचे के हिस्से में, जो काफी बड़ा था, गुप्ता का अपना परिवार रहता था। ऊपर की मंजिल पर दो कमरे, रसोई, गुसलखाना और शौचालय था। कमरों के आगे छोटा-सा बरामदा था। बाकी सारी छत खुली थी। बिजली-पानी का मुकम्मल इंतजाम था। धूप, हवा आदि की दृष्टि से भी मकान बिल्कुल ठीक था। ऊपर आने-जाने के लिए बाहर से अलग सीढ़ियाँ थीं। मकान का यह हिस्सा किराए पर उठाने के लिए ही बनवाया गया था और शान्त सहज रूप से रहने के लिए सर्वथा उपयुक्त था। रामवीर सिंह द्वारा अब तक देखे गए सारे मकानों में यह मकान सबसे उपयुक्त था। उनको मकान पसन्द आ गया था। उन्होंने तुरन्त हामी भर दी- “मकान मुझे पसन्द है।”

दूसरे मकान मालिकों की तरह गुप्ता ने भी बात पक्की करने से पहले रामवीर सिंह से उनके बारे में सामान्य जानकारियाँ लीं।

“आपका नाम क्या है?” गुप्ता का पहला सवाल था।

“मुझे आर.वी. सिंह कहते हैं।” रामवीर सिंह ने जवाब दिया।

“आप कहाँ के रहने वाले हैं?” गुप्ता ने दूसरा सवाल किया।

“मैं बुलन्दशहर जिले का रहने वाला हूँ।” रामवीर सिंह ने कहा।

“सिंह साहब, आप क्या करते हैं?” गुप्ता ने अगला सवाल किया।

“मैं व्यापार कर अधिकारी हूँ।” रामवीर सिंह ने बताया।

व्यापार कर का नाम सुनते ही गुप्ता का बात करने का ढंग बदल गया। पहले जहाँ वह मकान मालिक के दंभ के साथ बात कर रहा था, अब रामवीर सिंह को अदब से ‘साहब’ सम्बोधित कर बहुत विनम्रतापूर्वक बातें करने लगा – “मकान में आपको कोई तकलीफ नहीं होगी साहब, न किसी तरह का कोई डिस्टर्बेन्स होगा। यदि किसी चीज की कोई कमी दिखाई देती हो तो बता दें मैं तुरन्त पूरी करवा दूंगा।”

गुप्ता के हाव-भाव और बातचीत के ढंग से रामवीर सिंह ने सहज ही भाँप लिया कि गुप्ता क्यों ‘साहब’ कहकर इतनी इज्जत दे रहा है। उन्होंने समझ लिया कि यह व्यापारी है। इसलिए यह कर निर्धारण में लाभ पाने के लिए देर-सवेर मदद करने को कहेगा। किन्तु ‘तब का तब देखा जाएगा’, यह सोचकर उन्होंने गुप्ता का मकान किराए पर लेने का मन बना लिया।

“कितना किराया होगा मकान का”, रामवीर सिंह ने पूछा।

“किराए की क्या बात है साहब! आपका मकान है, आप ठाठ से रहें।” गुप्ता ने कहा।

“फिर भी, जो वाजिब समझते हैं वह बताइए। पहले वाले किराएदार से भी तो आप कुछ लेते होंगे।” रामवीर सिंह ने कहा।

“पहले की बात छोड़िए साहब! वह तीन सौ रुपए महीने देते थे, बिजली-पानी अलग। लेकिन आपको जो उचित लगे वह दें।” पिछले किराएदार का हवाला देकर गुप्ता ने प्रकारान्तर से किराया बता दिया।

रामवीर सिंह को मकान का किराया कुछ ज्यादा लगा था लेकिन उनको मकान लेना था और यह मकान उन्हें उपयुक्त लगा था इसलिए उन्होंने गुप्ता द्वारा बताए गए किराए पर मकान लेने की सहमति दे दी- “तब ठीक है, उतना ही किराया मैं भी दे दूंगा।”

गुप्ता के लिए इससे अच्छी और क्या बात हो सकती थी कि रामवीर सिंह उसके बताए किराए पर मकान लेने के लिए तैयार हो गए थे। वह तुरन्त बोला, “उसकी तो कोई बात ही नहीं है साहब! मकान आपके लिए है। आप जब चाहें इसमें शिफ्ट कर सकते हैं। आप बता देंगे किस दिन आपको शिफ्ट करना है तो मैं एक बार और इसकी ठीक से साफ-सफाई करवा दूंगा, आपके आने से पहले।”

रामवीर सिंह भी देर करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने गुप्ता से कह दिया, “आप सफाई करवा दें। मैं कल ही शिफ्ट करूंगा!”

गुप्ता ने आश्वस्त किया, “बहुत अच्छी बात है साहब! कल सुबह को ही इसकी सफाई हो जाएगी। आप जब भी आएँगे आपको मकान एकदम साफ मिलेगा।”

मकान तय हो गया। रामवीर सिंह ने राहत की साँस ली।

“तब ठीक है गुप्ता जी, अब हम चलते हैं। कल शाम को मैं अपना सामान लेकर आऊँगा।” रामवीर सिंह ने कहा और सीढियाँ उतरकर मकान से बाहर आ गए। उनका साथी और गुप्ता भी उनके पीछे-पीछे सीढ़ियाँ उतर आए।

अगले ही दिन रामवीर सिंह ने गेस्ट हाऊस से अपना सामान उठाया और गुप्ता के मकान में शिफ्ट कर लिया।

रामवीर सिंह यहाँ पर अकेले थे। उनका परिवार बुलन्दशहर में ही रहता था। उनका दफ्तर दस बजे लगता था। सुबह को वह नाश्ता करके साढ़े नौ बजे घर से निकल जाते और शाम को छ:-सात बजे के बाद लौटते। वह सीधे सीढ़ियाँ उतरते और सीधे चढ़ जाते। गुप्ता के परिवार या आस-पास में अन्य किसी के साथ बहुत ज्यादा वास्ता वह नहीं रखते थे। आते-जाते यदि गुप्ता से उनका आमना-सामना हो जाता तो गुप्ता बहुत विनम्रता और अदब के साथ झुककर उनको नमस्ते करता और गर्मजोशी से पूछता, “किसी प्रकार की कोई दिक्कत तो नहीं है साहब, कोई भी कमी या दिक्कत हो तो बताइएगा। आपको किसी प्रकार की भी असुविधा नहीं होनी चाहिए।”

रामवीर सिंह भी उतनी ही गर्मजोशी के साथ मुस्कराकर उसकी नमस्ते का जवाब देते और कहते- “नहीं, मैं बहुत मजे में हैं। किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है।”

घर से थोड़ी दूर ही सड़क के आखिरी छोर पर मन्दिर था। रोज सुबह-शाम वहाँ पूजा-अर्चना करने वालों की भीड़ लगी रहती थी। हालाँकि मोहल्ले के अधिकांश लोगों के घरों में छोटे-छोटे मन्दिर थे और उनमें अपने आराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखकर, उनके आगे धूप-अगरबत्ती जलाकर वे उनकी पूजा करते थे लेकिन मोहल्ले के मन्दिर में भी वे नियमित रूप से जाते थे। मोहल्ले भर के स्त्री-पुरुष मन्दिर में पूजा-प्रार्थना के लिए जाते थे। प्रतिदिन मन्दिर जाना गुप्ता का भी नित्य-नैमित्तिक धर्म था। आँधी-तूफान भले ही टल जाए गुप्ता का मन्दिर जाना नहीं टलता था। मन्दिर में पूजा करके तिलक लगवाए बिना उसके दिन की शुरुआत नहीं होती थी।

गुप्ता के मकान में रामवीर सिंह एडजस्ट हो गए थे। दोपहर का खाना वह बाहर खाते थे लेकिन सुबह का नाश्ता और शाम का खाना वह खुद बनाते थे। शुरू में कुछ दिन तक घर में झाड़ू लगाने और बर्तन धोने का काम उन्होंने खुद किया था। लेकिन इस बीच एक-दो बार ये काम करते हुए अचानक साथी अधिकारियों के आ जाने पर उन्होंने शर्म का अनुभव किया। उनके साथियों ने भी उनको टोका कि कोई कामवाली लगा लो। और उन्होंने घर में कूड़ा उठाने के लिए आने वाली सत्तो से कहकर रामबती को बर्तन और घर की सफाई के लिए रख लिया था।

गुप्ता की पत्नी को जल्दी ही इस बात का पता चला कि रामवीर सिंह रामबती से घर की सफाई करवाते हैं। उसने तुरन्त यह बात शिकायती स्वर में गुप्ता के कानों में डाली, “सुनो जी, ये आर. वी. सिंह रामबती से घर की सफाई करवाता है।”

सुनकर गुप्ता को भी यह बात अच्छी नहीं लगी। उसे एकाएक इस बात पर यकीन नहीं हुआ। वह अपनी पत्नी से बोला- “क्या कह रही हो तुम? भला एक सभ्य, शिक्षित और अफसर आदमी रामबती जैसी औरत से अपने घर की सफाई क्यों करवाएगा।”

लेकिन उसकी पत्नी ने अपनी बात को पुष्ट किया, “मैं सही बात कही रही हूँ जी! पहले तो मुझे भी यकीन नहीं आया था इस बात पर लेकिन मैंने खुद रामबती को सुबह-शाम जीना चढ़कर ऊपर आते-जाते देखा है और उससे पूछा है। उसने बताया है कि वह सफाई का काम करती है।”

अपनी पत्नी के मुँह से यह बात सुनकर गुप्ता कुछ सोच में पड़ गया। गुप्ता को चुप देखकर उसकी पत्नी ने उसे टोका, “देखो जी, चुप रहने से काम नहीं चलेगा। आर. वी. सिंह से कह दो वह रामबती से सफाई करवाना बन्द कर दें हम अपने घर को…”

गुप्ता ने जैसे सोच-विचार पूरा कर लिया था। उसने अपना मुँह खोला, “लेकिन यह ठीक नहीं होगा।”

“तो फिर?”, गुप्ता की पत्नी ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।

“आर. वी. सिंह एक अफसर है उससे कई काम पड़ सकते है। इसलिए उसको इस तरह से कहने की बजाए दूसरे तरीके से हैंडल करना पड़ेगा।” गुप्ता ने समझाने की कोशिश की।

गुप्ता की पत्नी जैसे कुछ भी समझने के लिए तैयार नहीं थी। उसने उसी गुस्साए स्वर में कहा- “अफसर है तो क्या हमारा धर्म बिगाड़ेगा वो। जरूरत पड़ने पर जिसके मुँह पर चाँदी का जूता मारोगे वो ही काम कर देगा। फिर आर. वी. सिंह का मूत हाथ में लेने की क्या जरूरत।”

गुप्ता ने अपनी पत्नी को समझाना जारी रखा और बोला- “मूत हाथ में लेने की बात नहीं है। दो-चार दिन के लिए तुम अपना मुँह सी लो और किसी से इस बात का जिक्र मत करो। मैं इस बीच कोई-न-कोई रास्ता निकाल लूंगा। हो सकता है कि खुद आर. वी. सिंह को रामबती के बारे में पता चल जाए और वह उससे सफाई करवाना बन्द कर दे।”

गुप्ता की इस बात में उसकी पत्नी को कुछ दम लगा या नहीं किन्तु वह गुप्ता की बात मानकर फिलहाल चुप हो गई थी।

रामवीर सिंह ने महसूस किया कि खाना आदि बनाने में उनका बहुत सारा समय लग जाता है। ‘उन्हें इस समय को बचाकर पुस्तक लिखने में लगाना चाहिए’, मन में यह विचार कर उन्होंने किसी कामवाली से खाना बनवाने का निश्चय किया। लेकिन खाना बनाने वाली कहाँ से ढूँढे कई दिन वह इस विषय में सोचते रहे। पहले उन्होंने सोचा गुप्ता से कह देता हूँ वह कोई इंतजाम करवा देगा। लेकिन तभी उनका ध्यान रामबती पर गया और उन्होंने सोचा- ‘सफाई का काम तो वह करती ही है, क्यों न खाना भी इससे ही बनवा लिया जाए। यदि रामबती खाना बनाने को तैयार हो जाए तो फिर दो कामवाली रखने की क्या जरूरत है। अलग से दूसरी कामवाली रखने की बजाए रामबती को ही और थोड़े ज्यादा पैसे दे दिए जाएँ तो क्या बुरा है। यह दोनों के लिए ठीक रहेगा’। यह सोचकर उन्होंने रामबती से बात की, “रामबती! क्या तुम मेरा खाना भी बना सकती हो?”

रामबती को एक अतिरिक्त काम मिल रहा था। अपनी आर्थिक तंगी के चलते उसको पैसों की जरूरत भी थी। उसने तुरन्त हाँ कर दी, “हाँ, मैं बना देंगी साहब!”

“तब, कल से ही शुरू कर दो।” उन्होंने रामबती से कहा।

“ठीक है साहब!” रामबती ने कहा और अगले दिन से रामवीर सिंह का खाना बनाना शुरू कर दिया।

रामबती से खाना बनवाते हुए रामवीर सिंह को अभी दो दिन ही हुए थे कि गुप्ता की पत्नी को इसका पता चल गया और उसने गुप्ता से कहा- “देखो जी, अब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा है। अब बर्दाश्त नहीं होगा।”

गुप्ता सहसा अपनी पत्नी के गुस्से के कारण को नहीं समझ सका। उसने पूछा- “लेकिन क्या बदर्शत नहीं होता अब? कुछ बताओ तो सही।”

गुप्ता की पत्नी पूरी तरह गुस्से में भरी थी। गुप्ता के इतना कहते ही फट-सी पड़ी- “अब तक तो आर. वी. सिंह केवल सफाई ही करवाता था रामबती से, अब उससे खाना भी बनवाने लगा है। किचन में स्लैब, नल हर चीज को हाथ लगाती होगी वह।”

यह बात सुनकर गुप्ता को झटका-सा लगा। लेकिन उसने संयम से काम लिया और अपनी पत्नी से बोला- “तुम चिन्ता मत करो। मैं आर. वी. सिंह से इस बारे में बात करूंगा।”

अगले दिन सुबह को ऑफिस जाते समय ही गुप्ता ने रामवीर सिंह को टोक दिया, “साहब! आप रामबती से खाना बनवाते हैं?”

“हाँ?” रामवीर सिंह ने कहा और पूछा, “कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं, हुआ तो कुछ नहीं है साहब! पर अच्छा रहेगा यदि आप रामबती की बजाए किसी और से खाना बनवाओ।” गुप्ता ने विनयपूर्वक अपना सुझाव रामवीर सिंह के समक्ष रखा।

रामवीर सिंह कुछ समझ नहीं पाए कि गुप्ता रामबती से खाना नहीं बनवाने के लिए क्यों कह रहा है। उन्होंने जानना चाहा, “क्यों, रामबती में क्या कमी है? वह खाना बना देती है तो इसमें क्या गलत है?”

“गलत है साहब! तभी आपसे कह रहा हूँ कि आपको रामबती से खाना नहीं बनवाना चाहिए।” गुप्ता ने फिर अपनी बात पर बल दिया।

गुप्ता की बात का रहस्य रामवीर सिंह की समझ में नहीं आ रहा था। उन्होंने जोर देकर पूछा, “लेकिन क्यों?”

“आप नहीं जानते साहब, रामबती चूहड़ी है। एक चूहड़ी से खाना बनवाएँगे आप? माँस-मछली पता नहीं क्या-क्या खाती है। मुझे तो सोचकर ही घिन-सी आ रही है। और वह रसोईघर के अन्दर घुसकर सब चीजों को छुएगी।” गुप्ता ने रहस्य पर से परदा हटा दिया।

गुप्ता की यह बात रामवीर सिंह को अच्छी नहीं बल्कि बुरी लगी। उन्होंने गुप्ता से कहा- “चूहड़ी है तो क्या हुआ? है तो वह भी इन्सान ही और फिर वह साफ-शुद्ध रहती है।”

लेकिन रामवीर सिंह की इस बात का गुप्ता पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने कहा- “इंसान तो सब है साहब! पर इंसान-इंसान में भेद होता है। सब इंसान बराबर नहीं होते। हजारों साल से समाज में यह भेद बना हुआ है। समाज के बीच समाज के अनुसार चलना पड़ता है साहब! समाज जिन बातों को मानता है हमको भी वे बातें माननी पड़ती हैं। यदि मोहल्ले में यह बात चल गई कि हमारे घर में अन्दर चूहड़ी खाना बनाती है तो मुसीबत हो जाएगी, साहब!”

“लेकिन खाना तो उससे मैं अपना बनवाता हूँ। जब मुझे कोई ऐतराज नहीं है तो किसी और को क्या दिक्कत होगी?”, रामवीर सिंह ने प्रश्नसूचक दृष्टि से गुप्ता की ओर देखा।

“ठीक है खाना आप बनवाते हैं साहब! पर मकान तो मेरा है। एक चूहड़ी के प्रवेश करने से रसोईघर अपवित्र होता है मेरा तो।” गुप्ता के इन शब्दों में उसका मालिक होने का दम्भ उभर आया था।

रामवीर सिंह को गुप्ता का जवाब बहुत अटपटा लगा। वह बोले, “आपकी बात कुछ जंच नहीं रही मुझको तो गुप्ता जी! हमें इस तरह की बातें नहीं सोचनी चाहिए। ये बातें बहुत पुरानी है और पीछे छूट चुकी है। हमारा संविधान, जिससे हमारा देश चलता है, उसकी नजर में सब बराबर हैं। कोई किसी से छोटा-बड़ा या छूत-अछूत नहीं है।” रामवीर सिंह ने गुप्ता को समझाने का प्रयास किया।

लेकिन गुप्ता अपनी बात पर अडिग था। वह कुछ भी समझने के लिए तैयार नहीं था। वह बोला- “संविधान से देश चलता है साहब, समाज नहीं। समाज परम्पराओं से चलता है। इस पूरे मोहल्ले में ब्राह्मण-बनिए रहते हैं- धरम-करम से चलने वाले। आपको मेरी बात नहीं जंच रही है तो देख लीजिए साहब आप ही। आप रामबती से ही खाना बनवाना चाहते हैं तो आपको मकान खाली करना पड़ेगा।”

गुप्ता के मुँह से यह बात सुनकर रामवीर सिंह सन्न रह गए। भेदभाव की इतनी दुर्गंध इन लोगों के मन में भरी हुई है। उन्होंने सोचा- ‘कोई अन्य बात हो तो मानी जा सकती है जैसे- वह गन्दी रहती हो, उसमें चोरी-चकारी की आदत हो या उसे खाना ठीक से बनाना नहीं आता हो। पर रामबती में ऐसी कोई बात नहीं है। वह खाना बनाने में कुशल एक निहायत सुशील और ईमानदार महिला है। इसलिए केवल इस आधार पर उससे खाना नहीं बनवाने का कोई औचित्य नहीं है कि वह जाति से चूहड़ी है। ऐसा करना तो जातिवाद को बढ़ावा देना है। गुप्ता की बात मानकर रामबती से खाना बनवाना बन्द कर देता तो छुआछूत और जातिवाद के सामने हथियार डाल देना होगा जो समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है और इसका विरोध मैं आज तक करता आया हूँ।’

रामवीर सिंह के मन ने निश्चय किया कि वह रामबती से खाना बनवाना बन्द नहीं करेंगे और उन्होंने गुप्ता को जवाब दे दिया, “यदि यह बात है तो मैं आपका मकान खाली करने के लिए तैयार हूँ लेकिन जातिगत भेदभाव के आधार पर मैं रामबती से खाना बनवाना बन्द नहीं करूंगा।” और ऑफिस जाने की बजाए वह नए मकान की तलाश में निकल पड़े।

जयप्रकाश 'कर्दम'
जयप्रकाश कर्दम एक हिन्दी साहित्यकार हैं। वह दलित साहित्य से जुड़े हैं। कविता, कहानी और उपन्यास लिखने के अलावा दलित समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को सामने लानेवाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी उन्होंने किया है।