रात भर बरसता रहा पानी
मैं अँधेरा किए
अपनी कुर्सी में
खिड़की से ज़रा दूर हटकर
बैठा रहा
बारिश कभी कम, कभी तेज़
बरसती रही, पेड़ों की चीख़
कभी दूर, कभी पास
आती जाती रही
हवाओं की सब कुछ उड़ा देने की कोशिश,
मेरी खिड़की के खुले पाटों के बीच
कभी तेज़, कभी कम!
मैं अपनी कुर्सी में बैठा
भीगी सिगरेट को जलाता
फिर बुझाता, फिर जलाता
माचिस की लौ, तेज़ बिजली की कड़क पर
चढ़ती उतरती रही
नहीं, तुम्हारी याद तो नहीं आयी
बस एक ख़याल मेरे ज़हन की गिरफ़्त से कहीं दूर
एक ख़्वाब मेरी जागती आँखों से ओझल
एक मुकम्मल ख़ालीपन
और बारिश का शोर!
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