लकड़ी का दरवाज़ा खोलकर इक परछाई आँगन में दाख़िल हुई। थैला ज़मीं पर फेंका और दीवार पर सिर टिकाकर दम भर साँस ली। वहीं चूल्हे के पास रोटी बेलती चूड़ियाँ मानो रात की ख़ामोशी से झगड़ा कर रही थीं। वो हल्के लहजे में बुदबुदाया, “गुड़िया कहाँ है… सो गई ना?”

“हाँ… इन्तज़ार किया फिर सो गई।”

“आज फिर काम नहीं मिला, सेठ बोलता है कल…  छोड़ो।”

“कुछ खाया भी तो नहीं होगा… खा लो।”

निवाला बस मुँह को छूने ही वाला था कि इक मद्धम आवाज़ आई, “बाबा मेरी किताब?”

चूड़ियों का झगड़ा अब ख़त्म हो चुका था, और आँगन इक ख़ामोशी में दफ़्न था।

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