अकाल
यह वाक़या दुद्धी तहसील के एक परिवार का है।
पिछले रोज़ चार दिनों से ग़ायब मर्द पिनपिनाया हुआ घर आता है और दरवाज़े से आवाज़ देता है। अन्दर से पैर घसीटती हुई उसकी औरत निकलती है। मर्द अपनी धोती की मुरि से दस रुपये का एक मुड़ा-तुड़ा नोट निकालता है और औरत के हाथ पर रखकर बोलता है कि जब वह शाम को लौटे तो उसे खाना मिलना चाहिए।
औरत चिन्तित होकर पूछती है, “अनाज कहाँ है?”
“जहन्नुम में।” मर्द डपटकर कहता है और बाहर निकल जाता है।
औरत नोट को ग़ौर से देखती है और जतन से ताक़ पर रख देती है। वह अपने चार साल के लड़के को—जो खेलते-खेलते सो गया है—जगाती है और कहती है, “तुम घर देखो, मैं अभी आ रही हूँ।”
लड़का आँख मलता है और वह उसे लौटकर अपने साथ बाज़ार ले चलने का लालच देता है! लड़का चुपचाप अपनी माँ को देखता रहता है।
औरत कटकटाए बर्तनों को उठाती है और मलने के लिए बाहर चली आती है।
वह चटपट बर्तन मलकर घर आती है और चौखट पर पहुँचकर दंग रह जाती है। नीचे ज़मीन पर नोट के टुकड़े पड़े हैं। वह बर्तन फेंककर ताक़ के पास जाती है—नोट नदारद। लड़का खटिया पर जस का तस लेटा है। वह ग़ुस्से में है और मुँह फुलाए है। वह लड़के को खींचकर मारना शुरू करती है और थक जाती है और रोने लगती है।
शाम को मर्द आता है और चौक में पीढ़े पर बैठ जाता है। वह औरत को आवाज़ देता है कि तुरन्त खाना दो।
औरत आँगन में बैठे-बैठे बताती है कि जब वह बर्तन मलने गयी थी, लड़के ने नोट को फाड़ दिया था।
मर्द अपनी सूखी जाँघ पर एक मुक्का मारता है और उठ खड़ा होता है। वह लपककर चूल्हे के पास से हँसुआ उठाता है और आँगन में खड़ा होकर चिल्लाता है, “अगर कोई मेरे पास आया तो उसे कच्चा खा जाऊँगा।”
उसका मुँह अपनी औरत की ओर है। औरत बिना उसे देखे-सुने बैठी रहती है। मर्द झपट्टा मारकर लड़के को उठाता है और उस पर चढ़ बैठता है। फिर हँसुए को झण्डे की तरह तानकर औरत को ललकारता है, “कच्चा खा जाऊँगा।”
औरत उसकी ओर क़तई नहीं देखती। मर्द लड़के के गले पर हँसुआ दबाता है और ग़ुस्से में काँखता है, “साले, तुझे हलाल करके छोड़ूँगा।” और अपने होंठ भींच लेता है।
लड़का—जो बिना चीख़े, चिल्लाए, रोए उसके घुटनों के बीच दबा है—किसी तरह साँस लेता है, “ओह, ऐसे नहीं, धीरे-धीरे…।”
और पुलिस दूसरी सुबह नियमानुसार मर्द के साथ अपना फ़र्ज़ पूरा करती है।
पानी
पुलिस को ख़बर दी जाती है कि सात दिनों से भूख निठोहर कुएँ में कूद गया है और वह बाहर नहीं आ रहा है।
“इसमें परेशानी क्या है?” पुलिस पूछती है।
“हुज़ूर, वह मरना चाहता है।”
“अगर वह यही चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं?” पुलिस फिर कहती है और समझाती है कि वे उसके लिए मर जाने के बाद ही कुछ कर सकते हैं, इसके पहले नहीं। उन्हें इसके लिए ‘फ़ायर-ब्रिगेड’ दफ़्तर को ख़बर करनी चाहिए।
ख़बर करनेवाले चिन्तित होते हैं और खड़े रहते हैं।
“साहेब, वह कुएँ में मर गया तो हम पानी कहाँ पिएँगे?” उनमें से एक आदमी हिम्मत के साथ कहता है।
“क्यों?”
“एक ही कुआँ है।” वह संकोच के साथ धीरे-से कहता है।
दूसरा आदमी बात और साफ़ करता है, “उस कुएँ को छोड़े पानी के लिए हमें तीन कोस दूर दूसरे गाँव जाना पड़ेगा।”
काफ़ी सोच विचार के बाद दो सिपाही कुएँ पर आते हैं। वे झाँककर देखते हैं—पानी बहुत नीचे चला गया है और वहाँ अंधेरा दिखायी पड़ रहा है। पानी की सतह के ऊपर एक किनारे बरोह पकड़े हुए निठोहर बैठा है—नंगा और काला। सिपाही होली का मज़ा किरकिरा करने के लिए उन्हें गालियाँ देते हैं और डोर लाने के लिए कहते हैं।
डोर लायी जाती है और कुएँ में ढील दी जाती है। सिपाही अलग-अलग और एक साथ चिल्लाकर निठोहर से रस्सी पकड़ने के लिए कहते हैं। रस्सी निठोहर के सामने हिलती रहती है और वह चुपचाप बैठा रहता है। सिपाही उसे डाँटते हैं, “बाहर आना हो तो डोर पकड़ो।”
काफ़ी हो-हल्ला के बाद निठोहर अपनी आँखें डोर के सहारे ऊपर करता है, फिर सिर झुका लेता है।
“वह डोर क्यों नहीं पकड़ रहा है?” एक सिपाही बस्ती वालों से पूछता है।
बस्ती वाले बताते हैं कि वह डोर पकड़ने के नहीं, मरने के इरादे से अन्दर गया है। वह भूख से तंग आ चुका है। सिपाही मसखरी करते हैं कि क्या वे उनके निठोहर के लिए रोटी हो जाएँ!
सिपाहियों में से एक फिर चिल्लाता है कि अगर वह मरने पर ही आ गया हो तो उसे कोई रोक नहीं सकता लेकिन वह कम-से-कम आज नहीं मर सकता। आज होली है और यह ग़लत है।
“हाँ, वह किसी दूसरे दिन मर सकता है, जब हम न रहें।” दूसरा सिपाही बोलता है।
जवाब में निठोहर के होंठ हिलते हुए मालूम होते हैं, लेकिन आवाज़ नहीं सुन पड़ती।
“क्या बोलता है?” एक सिपाही पूछता है।
“मुँह चिढ़ा रहा है।” दूसरा कहता है।
“नहीं, वह गालियाँ दे रहा होगा, बड़ा ग़ुस्सैल है।” दूसरी तरफ़ से अन्दर झाँकता हुआ एक आदमी कहता है।
“गालियाँ? खींच लो। तुम सब खींच लो डोरे और साले को मर जाने दो!” बाहर डोर पकड़े हुए बस्तीवालों पर एक सिपाही चीख़ता है।
बस्तीवालों पर उसकी चीख़ का कोई असर नहीं पड़ता।
“जाने दो। गाली ही दे रहा है, गा तो नहीं रहा है।” उसका साथी फिर मसखरी करता है और ही-ही करके हँसता है।
“अच्छा, ठीक है, बाहर आने दो।” सिपाही ख़ुद को शान्त करता है।
डोर ऊपर खींच ली जाती है और उसे बाहर निकालने के लिए तरह-तरह के सुझाव आने लगते हैं। तय पाया जाता है कि वह भूखा है और रोटियाँ देखकर ऊपर आ जाएगा। लेकिन सवाल पैदा होता है कि रोटियाँ कहाँ से आएँ? अगर रोटियाँ होतीं तो वह कुएँ में क्यों बैठता? फिर बात इस पर भी आती है कि उसे यहीं से चारा दिखाया जाए। मुलायम और नरम पत्तियाँ।
“क्यों, तुम सब उसे पाड़ा समझते हो?” नाराज़ सिपाही पूछता है और अपना थल-थल शरीर हँसी से दलकाने लगता है।
अंत में तय होता है कि कोई आदमी निकट के बाज़ार में चला जाए और वहाँ से कुछ भी ले आए। घंटे बाद पाव-भर सत्तू आता है। सिपाही पूरी बुद्धि के साथ एक गगरे में सत्तू घोलकर निठोहर के आगे ढील देते हैं। वह गगरे को हाथों में लेकर हिलाता है, उसमें झाँकता है, सूँघता है। फिर एक साँस में पी जाता है। ख़ाली गगरा फिर झूलने लगता है और ऊपर हँसी होती है।
“अच्छा बनाया उसने।” एक सिपाही कहता है।
“अब तो वह और भी बाहर नहीं आएगा।” बस्ती का एक आदमी उदास होकर कहता है।
“हाँ-हाँ, रुको। घबड़ाओ नहीं।” थलथल सिपाही अन्दर झाँकता हुआ हाथ उठाकर चिल्लाता है।
दूसरे भी झाँकते हैं।
निठोहर ने गगरा छिटाकर पानी पर फेंक दिया है और फंदा अपने गले में डाल लिया है।
“उसने फंदा पकड़ लिया है।” पहला सिपाही चिल्लाता है।
“खींचों, मैं कहता हूँ, खींचो साले को।” दूसरा चीख़ता है और निठोहर खींच लिया जाता है।
उसकी उँगलियाँ फंदे पर कस गयी हैं। जीभ और आँखें बाहर निकल आयी हैं और टाँगे किसी मरे मेंढक-सी तन गयी हैं।
सिपाहियों को करतब दिखाने का ज़रिया मिलता है और बस्ती वालों को पानी।
प्रदर्शनी
ख़बर फैली है कि इस इलाक़े में अकाल देखने प्रधानमंत्री आ रही हैं। सरगर्मी बढ़ती है। जंगल के बीच से नमूने के तौर पर पचास कंगाल जुटाए जाते हैं और पन्द्रह दिन तक कैम्प में रखकर उन्हें इस मौक़े के लिए तैयार किया जाता है।
स्वागत की तैयारियाँ शुरू होती हैं। फाटक बनाए जाते हैं। तोरण और बन्दनवार सजाए जाते हैं। ‘स्वागतम्’ और ‘शुभागमनम्’ लटकाए जाते हैं। ‘जयहिन्द’ के लिए दो नेताओं में मतभेद हो जाता है इसलिए यह नहीं लटकाया जाता।
गाड़ियाँ इधर से उधर दौड़ती हैं और उधर से इधर। पुलिस आती है, पत्रकार आते हैं, नेता और अफ़सर आते हैं। सी.आई.डी की सतर्कता बढ़ती है। अपने क्षेत्रों के विजेता नेता लोगों को समझाते हैं कि यह उनकी आवाज़ है जो प्रधानमंत्री को यहाँ घसीट लायी है। इस तरह अगले चुनाव में उनके विजय की भूमिका बनती है।
दूसरे क्षेत्रों से आए नेताओं को कोफ़्त होती है कि उनका क्षेत्र अकाल से क्यों वंचित रह गया।
इस बीच अकाल भी ज़ोर पकड़ लेता है। पेड़ों से बेल, महुवे, करौंदे, कुनरू, के बौर साफ़ हो चुकते हैं। अब पेड़ नंगे होने लगे हैं। उनकी पत्तियाँ—भरसक नरम और मुलायम—उठा ली जा रही हैं और खायी जा रही हैं। यह सब तब तक चल रहा है, जब तक आगे है।
ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री आती हैं। वे दस रुपये की साड़ी में सौ वर्ग मील की यात्रा करती हैं। कुछ ही घंटों में इतनी लम्बी यात्रा लोगों को सकते में डाल देती है।
प्रधानमंत्री ख़ुश रहती हैं क्योंकि लोग भूखे हैं फिर भी उन्हें देखने के लिए सड़कों पर धूप में खड़े हैं। जनता प्रधानमंत्री के प्रति अपने पूरे विश्वास और विनय के साथ अकाल में मर रही है। अंत में, प्रधानमंत्री का दस मिनट तक कार्यक्रम होता है। रामलीला मैदान में कहीं कोई तैयारी नहीं है। क्योंकि बाहर से लाए जाने वाले फल, गजरे, केले के गाछ कंगालों के बीच सुरक्षित नहीं रह सकते। और ऐसे भी यह कार्यक्रम जश्न मनाने के लिए नहीं है।
कार्यक्रम से पहले प्रदर्शनी के लिए तैयार किए गए सैंतालीस कंगाल लाए जाते है। पचास में से तीन मर चुके हैं। कैम्प में आने के तेरहवें दिन जब उन्हें खाने के लिए रोटियाँ दी गयीं तो वे पूरी की पूरी निगल गए। और हुआ यह कि रोटी सूखे गले में फँस गयी और वे दिवंगत हो गए।
प्रधानमंत्री उनके और सारी भीड़ के आगे अपना कार्यक्रम पेश करती हैं। वे धूप में एक चबूतरे पर आ खड़ी होती हैं। बोलने की कोशिश में होंठों को कँपाती हैं। आँखों को रूमाल से पोंछती हैं और सिर दूसरी ओर घुमा लेती हैं। रूमाल के एक कोने पर सुर्ख़ गुलाब कढ़ा है। भीड़ गदगद होती है।
इस मौन कार्यक्रम के बाद प्रसन्न चेहरे के साथ प्रधानमंत्री विदा लेती हैं। नारे लगते हैं। जै-जैकार होता है। और दूसरे शहर के सबसे बड़े होटल में प्रधानमंत्री पत्रकारों के बीच वक्तव्य देती हैं कि ‘हम दृढ़ता, निश्चय और अपने बलबूते पर ही इसका मुक़ाबला कर सकते हैं।’
अफ़सर ख़ुश होते हैं कि दौरा बिना किसी दुर्घटना के सम्पन्न हुआ है। भीड़ पहली बार अपने जीवन में प्रधानमंत्री का दर्शन पाकर छँट जाती है और वे सैंतालीस कंगाल घास और माथों की आंड़ी खाने के लिए जंगल की ओर हाँक दिए जाते हैं।
काशीनाथ सिंह की कहानी 'सुख'