अनुवाद: प्रेमचंद
सरग़नाओं और राजाओं की चर्चा हम काफ़ी कर चुके। अब हम उस ज़माने के रहन-सहन और आदमियों का कुछ हाल लिखेंगे।
हमें उस पुराने ज़माने के आदमियों का बहुत ज़्यादा हाल तो मालूम नहीं, फिर भी पुराने पत्थर के युग और नये पत्थर के युग के आदमियों से कुछ ज़्यादा ही मालूम है। आज भी बड़ी-बड़ी इमारतों के खण्डहर मौजूद हैं जिन्हें बने हज़ारों साल हो गए। उन पुरानी इमारतों, मन्दिरों और महलों को देखकर हम कुछ अंदाज़ा कर सकते हैं कि वे पुराने आदमी कैसे थे और उन्होंने क्या-क्या काम किए। उन पुरानी इमारतों की संग-तराशी और नक़्क़ाशी से ख़ासकर बड़ी मदद मिलती है। इन पत्थर के कामों से हमें कभी-कभी इसका पता चल जाता है कि वे लोग कैसे कपड़े पहनते थे। और भी बहुत-सी बातें मालूम हो जाती हैं।
हम यह तो ठीक-ठीक नहीं कह सकते कि पहले-पहल आदमी कहाँ आबाद हुए और रहने-सहने के तरीक़े निकाले। बाज़ आदमियों का ख़याल है कि जहाँ एटलांटिक सागर है, वहाँ एटलांटिक नाम का एक बड़ा मुल्क था। कहते हैं कि इस मुल्क में रहनेवालों का रहन-सहन बहुत ऊँचे दरजे का था, लेकिन किसी वजह से सारा मुल्क एटलांटिक सागर में समा गया और अब उसका कोई हिस्सा बाक़ी नहीं है। लेकिन क़िस्से-कहानियों को छोड़कर हमारे पास इसका कोई सबूत नहीं है, इसलिए उसका ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि पुराने ज़माने में अमरीका में ऊँचे दरजे की सभ्यता फैली हुई थी। तुम्हें मालूम है कि कोलम्बस को अमरीका का पता लगानेवाला कहा जाता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोलम्बस के जाने से पहले अमरीका था ही नहीं। इसका ख़ाली इतना मतलब है कि यूरोपवालों को कोलम्बस के पहले उसका पता न था। कोलम्बस के जाने के बहुत पहले से वह मुल्क आबाद और सभ्य था। युकेटन में, जो उत्तरी अमरीका के मेक्सिको राज्य में है, और दक्षिनी अमरीका के पेरू राज्य में, पुरानी इमारतों के खण्डहर हमें मिलते हैं। इससे इसका यक़ीन हो जाता है कि बहुत पुराने ज़माने में भी पेरू और युकेटन के लोगों में सभ्यता फैली हुई थी। लेकिन उनका और ज़्यादा हाल हमें अब तक नहीं मालूम हो सका। शायद कुछ दिनों के बाद हमें उनके बारे में कुछ और बातें मालूम हों।
यूरोप और एशिया को मिलाकर यूरेशिया कहते हैं। यूरेशिया में सबसे पहले मेसोपोटैमिया, मिस्र, क्रीट, हिन्दुस्तानी और चीन में सभ्यता फैली। मिस्र अब अफ़्रीका में है लेकिन हम इसे यूरेशिया में रख सकते हैं क्योंकि वह इससे बहुत नज़दीक है।
पुरानी जातियाँ जो इधर-उधर घूमती-फिरती थीं, जब कहीं आबाद होना चाहती होंगी तो वे कैसे जगह पसन्द करती होंगी? वह ऐसी जगह होती होगी जहाँ वे आसानी से खाना पा सकें। उनका कुछ खाना खेती से ज़मीन में पैदा होता था। और खेती के लिए पानी का होना ज़रूरी है। पानी न मिले तो खेत सूख जाते हैं और उनमें कुछ नहीं पैदा होता। तुम्हें मालूम है कि जब चौमासे में हिन्दुस्तान में काफ़ी बारिश नहीं होती तो अनाज बहुत कम होता है और अकाल पड़ जाता है। ग़रीब आदमी भूखों मरने लगते हैं। पानी के बग़ैर काम नहीं चल सकता। पुराने ज़माने के आदमियों को ऐसी ही ज़मीन चुननी पड़ी होगी जहाँ पानी की बहुतायत हो। यही हुआ भी।
मेसोपोटैमिया में वे दजला और फरात इन दो बड़ी नदियों के बीच में आबाद हुए। मिस्र में नील नदी के किनारे। हिन्दुस्तान में उनके क़रीब-क़रीब सभी शहर सिंधु, गंगा, जमुना इत्यादि बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे आबाद हुए। पानी उनके लिए इतना ज़रूरी था कि वे इन नदियों को देवता समझने लगे जो उन्हें खाना और आराम की दूसरी चीज़ें देता था। मिस्र में नील को ‘पिता नील’ कहते थे और उसकी पूजा करते थे। हिन्दुस्तान में गंगा की पूजा होने लगी और अब तक उसे पवित्र समझा जाता है। लोग उसे ‘गंगा माई’ कहते हैं और तुमने यात्रियों को ‘गंगा माई की जय’ का शोर मचाते सुना होगा। यह समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों वे नदियों की पूजा करते थे, क्योंकि नदियों से उनके सभी काम निकलते थे। उनसे सिर्फ़ पानी ही न मिलता था, अच्छी मिट्टी और बालू भी मिलती थी जिससे उनके खेत उपजाऊ हो जाते थे। नदी ही के पानी और मिट्टी से तो अनाज के ढेर लग जाते थे, फिर वे नदियों को क्यों न ‘माता’ और ‘पिता’ कहते। लेकिन आदमियों की आदत है कि असली सबब को भूल जाते हैं। वे बिना सोचे-समझे लकीर पीटते चले जाते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि नील और गंगा की बड़ाई सिर्फ़ इसलिए है कि उनसे आदमियों को अनाज और पानी मिलता है।
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