अब प्रश्न यह होगा कि क्या ठेठ हिन्दी बोलचाल की भाषा कही जा सकती है? मेरा विचार है, नहीं, कारण बतलाता हूँ, सुनिये। जिन प्रान्तों की भाषा आजकल हिन्दी कही जाती है, उन सब प्रान्तों में सैकड़ों फ़ारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेज़ी इत्यादि के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनको सर्वसाधारण बोलते हैं, और जिनको एक-एक बच्चा समझता है। अतएव हिन्दी भाषा के बहुत से तद्भव शब्दों के समान वे भी व्यापक और प्रचलित हैं, ऐसी
अवस्था में उनको हिन्दी भाषा का शब्द न समझना, और उनका प्रयोग हिन्दी लिखने में न करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसे प्रचलित अथवा व्यवहृत शब्दों के स्थान पर हम कोई संस्कृत का पर्यायवाची शब्द लिख सकते हैं, परन्तु वह सर्वसाधारण को बोधगम्य न होगा, कुछ शिक्षित लोग उसको भले ही समझ लें, अतएव यह कार्य भाषा की दुरुहता का हेतु होगा। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे शब्द भी हमको मिलेंगे, जिनके यथार्थ पर्यायवाची शब्द हमारे पास है ही नहीं। हाँ, कई शब्दों द्वारा हम उनका भाव अलबत्ता प्रकट कर सकते हैं, किन्तु यह व्यवहार तो प्रथम व्यवहार से भी अनुपयोगी होगा। अतएव ऐसे शब्दों से बचना अथवा उनके प्रयोग में आनाकानी करना हिन्दी भाषा के स्वरूप को जटिल बनाना और उसे संकुचित और संकीर्ण करना होगा।

नीचे एक वाक्य लिखता हूँ। आप उसके द्वारा मेरे कथन की मीमांसा कीजिये, उसकी कसौटी पर मेरे कथन को कसिये, उस समय आपको ज्ञात होगा कि मेरा कथन कहाँ तक युक्तिसंगत है।

“आज मैं कचहरी से आ रहा था, एक चपरासी मुझे राह में मिला, उसने कहा आप से तहसीलदार साहब नाराज हैं, आपने अपनी मालगुज़ारी अबतक नहीं जमा की, इस लिए वे बन बिगड़ रहे थे। आप चले जाइये तो शायद मान जावें, नहीं तो समन जरूर काट देंगे।”

इस वाक्य में राह, नाराज, शायद और जरूर के स्थान पर मार्ग, अप्रसन्न, स्यात् और अवश्य हम लिख सकते हैं, परन्तु भाषा सर्व-साधारण को बोधगन्य न होगी। कचहरी, चपरासी, तहसीलदार साहब, मालगुजारी, जमा, समन का पर्यायवाची कोई उपयुक्त शब्द हमारे पास नहीं है। हाँ, गढ़ा हुआ शब्द अथवा वाक्य उनके स्थान पर लिखा जा सकता है, किन्तु उसका परिणाम असुविधा, कष्ट-कल्पना और भाषा की महाजटिलता छोड़ और कुछ न होगा, वरन् वाक्य को समझना ही असंभव हो जायगा।

हम नित्य, अलबत्ता, लात जूता, नर्म, गर्म या रेल, तार, डाक, लालटेन इत्यादि शब्द बोलते हैं, जिनको सभी समझ लेते हैं, फिर उनके प्रयोग में क्यों संकोच किया जावे। जब ये सब शब्द हिन्दी के तद्भव शब्द के समान ही व्यापक और प्रचलित हैं, तो हिन्दी लिखने में उनका यथास्थान प्रयोग अवश्य होना चाहिए, इससे सुविधा तो होगी ही, हिन्दी का विस्तार भी होगा। जिस ठेठ हिन्दी में अन्य भाषाओं का प्रचलित शब्द भी तद्भव शब्दों के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहृत होता है, उसी को बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है। इसका नमूना बाबू हरिश्चन्द्र की नम्बर-४ की भाषा है, किन्तु उन्होंने उसको लिखने योग्य नहीं माना, यह उनकी स्वतंत्र सम्मति है।

बाबू साहब ने नं-४ की भाषा को लिखने योग्य क्यों नहीं माना, इसका एक कारण है। जिस समय का यह लेख है उस समय कुछ ऐसा प्रवाह बह रहा था, कि हिन्दी के कुछ धुरन्धर लेखक एक ओर तो फारसी, अरबी इत्यादि के शब्दों का ‘बायकाट’ कर रहे थे और दूसरी ओर उर्दू के प्रसिद्ध लेखक हिन्दी को फारसी, अरबी और तुर्की शब्दों से भर रहे थे, कुछ लोगों का मध्यपथ था; परन्तु उनकी संख्या थोड़ी थी। हिन्दी लेखकों में राजा लक्ष्मणसिंह और बाबू हरिश्चन्द्र स्वयं और उनके दूसरे सहयोगी प्रथम पथ के पथिक थे। दूसरा मार्ग सभी उर्दू लेखकों का था, तीसरी राह पर राजा शिवप्रसाद और उन्हीं के विचार के दो एक सज्जन चल रहे थे। अतएव अनुमान यह होता है कि बाबू साहब को अपना पक्ष पुष्ट करने के लिए उक्त विचार प्रकट करना पड़ा था, किन्तु उनका आचरण सर्वथा इसी के अनुसार नहीं था। उन्होंने इस प्रकार की हिन्दी भी लिखी और स्वतंत्रता से लिखी है। नम्बर-१ की हिन्दी को भी उन्होंने लिखने योग्य नहीं बतलाया है, किन्तु उनकी अधिकांश रचना इसी भाषा में है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि नं-४ की भाषा को लिखने योग्य न बतलाना एक ऐसा साधारण अमनोनिवेश है जिसको प्रमाणकोटि में नहीं ग्रहण किया जा सकता।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। 'प्रिय प्रवास' हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगला प्रसाद पारितोषित पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।