मृत्यु आयी और कल मेरी कहानी के एक पात्र को
अपने संग ले गई
अक्सर उसके घर के सामने से गुज़रते हुए
मैं उधर देख लिया करता था
अर्से से वह दिखा ही नहीं
एक दिन कहा किसी ने कि वह बीमार है गम्भीर रूप से
उससे मिलने के लिए थोड़ा बहुत साहस ज़रूरी था
जो मैंने अपने आप में न पाया

अंततः एक दिन मैं ख़ामोश बैठा रहा उसके सामने
उसके ओठों पर हल्की-सी मुस्कुराहट थी या शायद
रहा हो कोई दर्द
वह बिस्तर पर था और हो चुका था तब्दील एक कंकाल में
देर तक वह देता रहा मुझे डॉक्टरों, हकीमों और वैद्यों का हवाला
उसे कोई मलाल न था
मैं उसे सुनता ही रहा

मुझे याद आए अपनी कहानी के वे प्रसंग
जहाँ वह शिद्दत से मौजूद था
उसके दरवाज़े के वे पल्ले जिनकी दरारों से
दिखायी देती थी बाहर की दुनिया
अक्षरों को ढूँढ-ढूँढकर एक भाषा में ढालने का उसका काम

गिरफ़्त ख़ामोशी की तकलीफ़देह थी
जब मैं उससे बाहर आया
मेरा पात्र धीरे-धीरे पास आती शाम को देख रहा था
शवयात्रा में जुटे आठ-दस लोग
तत्परता से उसे फूँक आए
मुझे अब लग रहा कि उसके संग
मेरा भी कुछ जाता रहा है
जैसे थोड़ी बहुत मृत्यु मुझे भी आयी है

अब उधर से गुज़रता नहीं देखता मैं
कवेलू वाला छप्पर
अब मैं उस कहानी को भी नहीं पढ़ता जहाँ रहा आया वह
अब मैं
उसके ज़िक्र से भी भरसक बचता हूँ
उसका गुज़रना गोया मेरा भी गुज़रना है यहाँ!

नरेन्द्र जैन की कविता 'बच्चा हँस रहा है'

Recommended Book:

Previous articleवक़्त
Next articleपृथ्वी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here