‘Train’, a poem by Mukesh Kumar Sinha
वर्षों देखी
ट्रेनों की आवाजाही
और ट्रेन के सापेक्ष स्थिर रुककर
निहारता रहा लड़का
इंतज़ार करता हुआ
कि कब गुज़र जाए ट्रेन, कब पार करूँ रास्ता
ट्रेन का वेग लड़के के सापेक्ष
बताता रहा अपना विस्थापन
सर्पिली बिछी पटरियों के पास ही
घर होने के वजह से
महसूसता रहा हर पल, यात्राएँ
सफ़र पर न रहने के बावजूद भी
हिलता रहा बिस्तर
जैसे स्लीपर का सीट नम्बर हो ग्यारह
रुकती रहीं साँसें भी कभी-कभी
एक अनजाने फ़ोबिया से
इन्हीं पास से गुज़रती पटरियों पर
कभी-कभी लगायी थी दौड़ बेवक़ूफ़ लड़के ने
ताकि पता चले बैलेंस का
और तो और
एक-आध बार
पटरी पर रखकर सिक्का
उतार दिया था नाम
लाल फ़्रॉक वाली लड़की का
क्योंकि सिक्के पर से गुज़री थी ट्रेन
लड़का थमा रहा स्टेशन सा पर वो हो गई ट्रेन
थमा रह गया वो, जबकि गंतव्य तक पहुँच गयी ट्रेन
कुछ बार
करता रहा उन दोस्तो को
सी-ऑफ व रिसिव भी
जो ट्रेन से गए या आए
अपने भविष्य को सँवारने या सँवार चुकने के बाद
पर ज़िन्दगी अटकी-भटकी थी
उस लड़के की
क्योंकि सफलताएँ ज़रूरी नहीं
हर के हिस्से में हों हासिल
ट्रेन पुकारती रही उस लड़के को इसी तरह
वजह – बेवजह
गुज़रते समय के साथ
गुज़रती रही ट्रेनें
पर लड़का सोचता रहा
सभी जाते रहे, भाग रही है ज़िन्दगी
एक मैं ही पुल की तरह हूँ थमा हुआ
मैं ही नहीं बन पाया यात्री
कभी-कभी ये भी मन में आया
पटरियाँ कैसे चल पाती हैं ट्रेन के साथ
भागती पटरियों सी ज़िन्दगी में
नहीं था अब तक उसके हिस्से
सफलता सी ट्रेन
फिर बदला ज़िन्दगी का कैनवास
रंग भरे उसने आसमान में
विस्थापित हुआ लड़का
उमंगों को पोटली में बांधे हुए
छोड़ कर अम्मा-बाबा का गाँव
बहते भागते वक़्त के साथ बनी दूरियाँ
क्योंकि नहीं मिलती नौकरी से छुट्टी
या रही पारिवारिक उलझन
पर फिर भी
लड़के के चंचल मन में
ख़ुशियों की एक ख़ास वजह तब भी होती
जब शहर को जाने वाली ट्रेन के
कन्फ़र्मड रिज़र्वेशन लिस्ट में होता नाम
उसका।
ज़िन्दगी ट्रेन है
और हर दिल्ली वाले बिहारी लड़के की ट्रेन
होती है सफ़र में
व वजह होती है अम्मा।
….है न!!
यह भी पढ़ें: मुकेश कुमार सिन्हा की कविता ‘प्रेम का अपवर्तनांक’
Books by Mukesh Kumar Sinha: