‘Triyacharitra’, a poem by Ruchi

कुछ औरतें भोली होती हैं,
काले-नीले निशानों को छिपाते, होंठों पर हँसी चिपकाते,
सुखद दाम्पत्य से अघायी रहती हैं।

पर कुछ बड़ी चंट होती हैं, ढाँपकर दर्द अपना चल देती हैं ज्योतिष के पास
कभी लाल कपड़े में सिंदूर छिपाकर बहाती हैं तो कभी नारियल में पति की छुई हल्दी ज़मीन के नीचे दबाती हैं
राखी और अपने छिपाए रुपयों को चढ़ावे में चढ़ा आती हैं।

यक़ीं करती हैं कि उनका आदमी ऐसा नहीं, ज़रूर कोई बुरा साया है।
सारे पड़े लात-घूँसों को झेल जाती हैं यह सोच,
कि खड़ी हैं अपने आदमी के साथ वो कन्धे से कन्धे मिलाये।

कभी मन्दिर जाती हैं तो कभी चादर चढ़ाती हैं
पर कभी मुँह से ‘अब बस’ नहीं कह पाती हैं
पूरी ज़िन्दगी जी जाती हैं इस भरोसे के दम पर
कि एक दिन बुरे साये से मुक्त हो जाएगा उनका आदमी,
पर मुक्त नहीं हो पाती ख़ुद बुरे साये से।

सुखी दाम्पत्य की आस में कभी साठ तो कभी सत्तर की हो जाती हैं
अब नहीं जा पाती हैं वो ज्योतिष के पास,
नहीं कर पाती हैं कोई टोटका फुर्ती से।
भगवान भरोसे हो जाती हैं, आस बाँधने लगती हैं
कि हमको सुहागन ही उठा लो राम जी, जल्दी ही उठा लेना, हाथ-पैर चलते-चलते ही उठा लेना।
नहीं तो बड़ी छीछालेदर हो जाएगी
नहीं जान पातीं कि छीछालेदर हो चुकी है।

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