भीड़ में
चारों ओर लोगों से घिरा
एक आदमी
अपनी एड़ी पर उचककर ढूँढ रहा है
कोई निर्जन स्थान

दूर एक जगह है
जो आदमियों से ख़ाली है
वहाँ हवा ज़्यादा होगी

इतनी अधिक है भीड़
कि वह भीड़ को लाँघकर
भीड़ से बाहर नहीं जा पा रहा है

वह चाहता है कि भीड़ की परिधि पर खड़ा व्यक्ति
उस निर्जन तक जाए
और भीड़ में हस्तांतरित करते हुए
उस तक पहुँचा दे
उस निर्जन में भरी हुई हवा में रखा हुआ
उसके हिस्से का सुकून

लेकिन जब भी उसके लिए कोई चीज़
भीड़ के बाहर से चलती है
भीड़ के बीच में
किसी न किसी के द्वारा हथिया ली जाती है

वह भूल चुका है कि पिछली कितनी पुश्तों से
वह एक ही जगह पर खड़ा है
हर बार उसकी मृत्यु
भूख के समय भोजन
प्यास के समय पानी
साँस के समय हवा के न होने जैसे कारणों से हुई
अभी भी वह ज़रूरत-भर हवा की आकांक्षा में खड़ा है
हर तरफ़ से आते धक्कों में दबा हुआ
भीड़ की तस्वीर के सबसे अदृश्य चेहरे के रूप में

अभी इस वक़्त
जब फूलती जा रही है उसकी साँस
उसके कान में गूँज रहा है
सदियों से उसकी पुश्तों से किया जा रहा झूठा वादा—
“तुम बस नींव की तरह गड़े रहना,
हम पहुँचाते रहेंगें तुम तक
रसद और तुम्हारी ज़रूरत का सारा सामान…”

योगेश ध्यानी की कविता 'बाज़ार का हँसना लाज़िम है'

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