मैं इलाक़े के आख़िरी छोर पर
झंखाड़ की तरह उगा था
तुम मेरी आस्तीन में
नीला फूल बनकर खिली थीं
तुम ही थीं
जिसने तितली की शक्ल में
डुबोया था मुझे रंगों में
आम मैना के रूप में
तुम ही फुदक-फुदककर
बिखरा गयी थीं मेरे बाल
चींटियों की क़तार में भी
तुमने ही बनाया था
मेरी जड़ों में अपना घर
तुम ही थीं जिसने
एक बच्ची की गेंद खो जाने पर
हिलाए थे मेरे कंधे
और सहलायी थी मेरी गोद
तुम ही थीं उस शाम
बादल बनकर गिरी थीं मेरे ऊपर
और भिगा गयी थीं रोम-रोम
तुम ही आयी थीं न
एक दिन मालिन बनकर
छाँटने के लिए मेरा अतिरिक्त
देने के लिए एक आकार
तुम ही थीं न
जिसने अलग-अलग रूपों में आकर
सजाया था मुझे
दिया था अपना स्पर्श
बस यही सोचते हुए
हर आहट पर उचक-उचककर खोजता हूँ
और तुम्हारे न मिलने पर
लिखने लगता हूँ भूरी मिट्टी पर
कोई अनचीन्ही-सी कविता।
शिवम चौबे की कविता 'कायरों का गीत'