ऊषा गहन तम में घिरी
साँझ जीवन की घनेरी
पथ चले जब डगमगाये
पाँव भी थे लड़खड़ाये
दिग न कोई सूझता था
मन न कुछ भी बूझता था
घन तिमिर में दीप लेकर
तुम कौन आये ज्योति बनकर
शेष जीवन की लहर
डूबे हुए थे प्राण स्वर
दुःख सिंधु में गोते लगाते
न स्वप्न थे दृग में समाते
गति काल भी विपरीत थी
अबोल मैं सभीति थी
निस्तब्ध निशा में मधुर संगीत लेकर
तुम कौन आये गीत बनकर
हर वार को तैयार था
मन में जो संचित प्यार था
आघात पर आघात सहते
मैं मूक थी सम्वाद रहते
जीवन को यूँ नहीं हारते
मन सबल हुआ स्वीकारते
दुर्निवार रण में जीत लेकर
तुम कौन आये मीत बनकर…