दहकती हुई चीज़ों के आर-पार
तेंदुए की तरह गुर्राता, छलाँगें मारता
गुज़रता है समय

देखो सब कुछ कैसा दहक रहा है
जली हुई चीज़ें चमकदार कोयला बन रही हैं
यहाँ-वहाँ इकट्ठा होता जाता है मरते साथियों का रक्त
—अभी हमारा सब कुछ बार-बार ईंधन बन रहा है।

ठीक-ठीक पहचानने की कोशिश करो
किसकी दाढ़ में लगा है हमारा ख़ून
उस चालाक नदी के मुहाने मोड़ दो
जो बारूद बनते आँसुओं के समुद्र में
डाल रही है
कचरा
झूठ और झूठ और झूठ और झूठ का

इस युद्ध में अब तक कोई नहीं लड़ा है अपने गूँगे शब्दों से खेलता
अब तक किसी ने परछाईं-भर की दूरी में थरथराती
उस चीज़ को कोई नाम नहीं दिया
वह महज मृत्यु है—एक जैविक परिणति-भर
या दुस्साहस
या वह भविष्य
जो तेंदुए के पंजों के नीचे है
हमारा भविष्य होने के ऐन पहले

जो कुछ अब झेल रहा है
धरती का यह अभागा टुकड़ा
वह
पूरी संस्कृति के व्याकरण से बहुत बड़ा हो गया है
किसी एक उच्छल हँसी के इर्द-गिर्द
इकट्ठे हो जाते हैं बीसवीं सदी के इन वर्षों के सारे ख़तरनाक हथियार
दुनिया के इस बेरौनक़
चरमराते हुए ढाँचे में कितनी कुशलता से
बंद रखे गए हैं
हमारे सपनों के अधजले फूल और छल एक साथ

इसे जानना है तुम्हें
क्योंकि
तुम्हारी लड़ाई
उस निर्मम जंगल के ख़िलाफ़ ग़ुस्सैल लकड़हारों की
लम्बी लड़ाई है
जिस जंगल में सिर्फ़ आदमख़ोर रहते हैं
—देखो कैसा चमकता है अँधेरा
काई की गाढ़ी परत-सा
एक निर्मम फ़ासीवादी चरित्र पर
देखो लोकतंत्र का अलौकिक लेप—
और यह कहने को जब-जब बढ़ते हैं नागरिक अधिकार
कि वे क़ैद कर लिए जाते हैं
इस अर्द्ध-उपनिवेश की सुरक्षा के नाम पर

मगर
जल रही हैं अब बेशुमार आवाज़ें
जल रहे हैं लगातार बेशुमार हाथों के तनाव भरे संसार
और यहीं वह सवाल है
कैलेंडर की हर तारीख़ में गूँजता हुआ
तुम किसके साथ हो
और किस तरह!

पंकज सिंह की कविता 'वह किसान औरत नींद में क्या देखती है'

Book by Pankaj Singh:

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