‘Tum Stree Ho’, a poem by Mahima Shree

सावधान रहो, सतर्क रहो
किससे?
कब? कहाँ?
हमेशा रहो! हरदम रहो!
जागते हुए भी, सोते हुए भी।

क्या कहा!
ख़्वाब देखती हो?
उड़ना चाहती हो?
कतर डालो पंखो को अभी के अभी
ओफ़्फ़ तुम मुस्कुराती हो!
अरे तुम तो खिलखिलाती भी हो?
बंद करो
आँखों में काजल भर
हिरणी-सी कुलाचें मारना

यही तो दोष तुम्हारा है।
शोक गीत गाओ!
भूल गयी तुम स्त्री हो!

किसी भी उम्र की हो क्या फ़र्क़ पड़ता है!
आदम की भूख उम्र नहीं देखती
ना ही देखती है देश, धर्म औ’ जात
बस सूँघती है
मादा गंध!

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महिमा श्री
रिसर्च स्कॉलर, गेस्ट फैकल्टी- मास कॉम्युनिकेशन , कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन कविता,गज़ल, लधुकथा, समीक्षा, आलेख प्रकाशन- प्रथम कविता संग्रह- अकुलाहटें मेरे मन की, 2015, अंजुमन प्रकाशन, कई सांझा संकलनों में कविता, गज़ल और लधुकथा शामिल युद्धरत आदमी, द कोर , सदानीरा त्रैमासिक, आधुनिक साहित्य, विश्वगाथा, अटूट बंधन, सप्तपर्णी, सुसंभाव्य, किस्सा-कोताह, खुशबु मेरे देश की, अटूट बंधन, नेशनल दुनिया, हिंदुस्तान, निर्झर टाइम्स आदि पत्र- पत्रिकाओं में, बिजुका ब्लॉग, पुरवाई, ओपनबुक्स ऑनलाइन, लधुकथा डॉट कॉम , शब्दव्यंजना आदि में कविताएं प्रकाशित .अहा जिंदगी (साप्ताहिक), आधी आबादी( हिंदी मासिक पत्रिका) में आलेख प्रकाशित .पटना के स्थानीय यू ट्यूब चैनैल TheFullVolume.com के लिए बिहार के गणमान्य साहित्यकारों का साक्षात्कार

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