तुम्हारा पत्र आया, या
अँधेरे द्वार में से झाँककर कोई
झलक अपनी, ललक अपनी
कृपामय भाव-द्युति अपनी
सहज दिखला गया मानो
हितैषी एक!
हमारे अन्धकाराच्छन्न जीवन में विचरता है
मनोहर सौम्य तेजोमय मनीषी एक!
तुम्हारा पत्र आया या कि तुम आयीं
हमारे श्याम घर की छत
हुई निःसीम नीले व्योम-सी उन्नत
कि उसका साँवला एकान्त
था यों प्रतिफलित पल-भर,
हमारी चारदीवारी
क्षितिज से मिल गयी चलकर!
हुआ सम्पूर्त मेरे प्राण का अभिमत!
उठा लेंगे सुनीलाकाश
मेरे स्कन्ध होते जा रहे व्यापक—
कि वे हिम-हेम शैलाभास
कि मेरा वक्ष
जन-भ्रातृत्व संवाहक
तुम्हारे मात्र होने से हमारे पास।
तुम्हारे मात्र होने से
सभी सम्बन्ध हटकर दूर
केवल एक पृथ्वीपुत्र का नाता
व उस एकान्त नाते में
गहन विश्वास पूरम्पूर।
तुम्हें यों देखकर के पास,
लगता हूँ—
खुली स्वाधीन पृथ्वी का
श्रमिक मैं नागरिक स्वाधीन,
व जन-भ्रातृत्व के सहज आनन्द में तल्लीन,
गिरियों को हटाता हूँ
व नदियों के मुहाने फेर देता हूँ।
(हे पृथ्वी अभी तक बन्दिनी
पर कल रहेगी क्यों?)
खुली उन्मुक्त धरती के महाविस्तार पर फैली
सृजन-कल्याण की उन्मादिनी पूनो—
मधुर लावण्यमय मानो
तुम्हीं हो चन्द्र का विश्वास-कोमल बिम्ब।
तुमको देख—
कोई (आदिवासी मूल कवि-सा एक)
सहसा नाच उठता है
गहन सम्वेदना के तार
तन में झनझनाते हैं,
व पलको में ख़ुशी के सौम्य आँसू काँप जाते हैं
मदोद्धत नृत्य की सम्वेदनाओं में।
यहाँ घर में लिए यह पत्र
अतिशय शान्त, अति गम्भीर
औ’ चुपचाप बैठा हूँ
कि मैं हूँ सभ्य!
तुम दिन-स्वप्न में सन्देश की उपलब्धि के आश्चर्य।
क्यों मैं देखता हूँ सामने तुमको
अनातुर मौन रहकर पान करता हूँ
तुम्हारे स्नेहमय व्यक्तित्व का सौन्दर्य।
तुम्हारा पत्र
जीवन-दान देता है,
हमारे रात-दिन के अनवरत संघर्ष
में उत्साह-नूतन प्राण देता है।
मुक्तिबोध की कविता 'एक-दूसरे से हैं कितने दूर'