एक ख़त लिखने बैठा था
तुम्हें,
बस एक ख़त
जो बेशक़
बिलकुल खाली हो
पर उस खालीपन में सुक़ून हो,
जो बेशक़
तुम्हें समझ ना आए
पर उस नासमझी में सुकून हो।

बस एक ख़त
जिसमें यादें हों
जो बेशक़ बिलकुल झिलमिल हों
जिसमें तुम हो, मैं हूँ
और बिताए साथ लम्हें हों।
ज़िक्र हो जिसमें
उन दोपहरों का,
तुम्हारे बालों से छनती उस धूप का,
तुम्हारे माथे की बेवजह की सिलवटों का
और अचानक उनके मिटने का

ज़िक्र हो जिसमें
उन बूंदों का,
उन बूंदों के उलझे झगड़ों का,
उस बेमौसम के पतझड़ का,
और पत्तों के उन झगड़ों का
जो तुम्हें छूने मात्र के लिए
बेवजह ही हुआ करते थे ।

बस एक ख़त
जिसमें बता सकूँ
कि
लम्हें साथ आकर बादल बनते हैं
और यादों की तरह
बरस पड़ते हैं,
हँसती तो तुम हो
और महक वो नरगिस पड़ते हैं

बस एक ख़त,
बेवजह,
तुम्हारे लिए…

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