मनुष्य सामाजिक पशु है। मनुष्य और पशु में अन्तर यही है कि मनुष्य अपने हित और अहित के लिए अपने समाज पर अधिकतर निर्भर रहता है। वस्तुतः पशु-जगत के बड़े-बड़े बलिष्ठ शत्रुओं के रहते तथा समय-समय पर आने वाले हिमयुग-जैसे महान प्राकृतिक उपद्रवों से बचने में उसके दिमाग़ ने जो सहायता दी है, उसमें मनुष्य का समाज के रूप में संगठन बहुत भारी सहायक हुआ है। समाज ने पहले कमज़ोर मनुष्य की शक्तियों को सैकड़ों व्यक्तियों की एकता द्वारा बहुत बढ़ा दिया और तभी वह अपने प्राकृतिक और दूसरे शत्रुओं से रक्षा पाने में मदद देते हुए भी अपने भीतर से ऐसे शत्रुओं को पैदा कर दिया है जिन्होंने कि उन प्राकृतिक और पाशविक शत्रुओं से भी अधिक मनुष्य-जीवन को नारकीय बनाने का काम किया है।
समाज का अपने भीतर के व्यक्तियों के प्रति न्याय करना प्रथम कर्तव्य है। न्याय का मतलब यह होना चाहिए कि हर एक व्यक्ति अपने श्रम के फल का उपयोग कर सके। लेकिन आज हम उलटा देखते हैं।
धन वह है जो आदमी के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। खाना, कपड़ा, मकान, ये ही चीज़ें हैं जिन्हें वास्तविक धन कहना चाहिए। वास्तविक धन के उत्पादक वे ही हैं जो इन चीज़ों को पैदा करते हैं। किसान वास्तविक धन का उत्पादक है, क्योंकि वह मिट्टी को गेहूँ, चावल, कपास के रूप में परिणत करता है। दो घण्टे रात रहते खेतों में पहुँचता है। जेठ की तपती दुपहरी हो या माघ-पूस के सबेरे की हड्डी छेदने वाली सर्दी, वह हल जोतता है, ढेले फोड़ता है, उसका बदन पसीने से तर-बतर हो जाता है, उसके एक-एक हाथ में सात-सात घट्टे पड़ जाते हैं, फावड़ा चलाते-चलाते उसकी साँस टँग जाती है, लेकिन तब भी वह उसी तरह मशक्कत किए जाता है। क्योंकि उसको मालूम है कि धरती माता के यहाँ रिश्वत नहीं चल सकती—वह स्तुति-प्रार्थना के द्वारा अपने हृदय को खोल नहीं सकती। यह अकिंचन मिट्टी सोने के गेहूँ, रूपे के चावल और अंगूरी मोतियों के रूप में तब परिणत होती है जब धरती माता देख लेती है कि किसान ने उनके लिए अपने ख़ून के कितने घड़े पसीने दिए, कितनी बार थकावट के मारे उसका बदन चूर-चूर हो गया और कुदाल अनायास उसके हाथ से गिर गयी।
गेहूँ बना-बनाया तैयार एक-एक जगह दस-बीस मन रक्खा नहीं मिलता, वह पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस दानों के रूप में और वह भी अलग-अलग बालियों में छिपा सारे खेत में बिखरा रहता है। किसान उन्हें जमा करता है, बालियों से अलग करता है। दस-दस, बीस-बीस मन की राशि को एक जगह देखकर एक बार उसका हृदय पुलकित हो उठता है। महीनों की भूख से अधमरे उसके बच्चे चाहभरी निगाह से उस राशि को देखते हैं। वे समझते हैं कि दुख की अँधेरी रात कटने वाली है और सुख का सबेरा सामने आ रहा है। उनको क्या मालूम कि उनकी यह राशि—जिसे उनके माता-पिता ने इतने कष्ट के साथ पैदा किया—उनके खाने के लिए नहीं है। इसके खाने के अधिकारी सबसे पहले वे स्त्री-पुरुष हैं जिनके हाथों में एक भी घट्टा नहीं है, जिनके हाथ गुलाब जैसे लाल और मक्खन जैसे कोमल हैं; जिनकी जेठ की दुपहरियाँ खस की टट्टियों, बिजली के पंखों या शिमला और नैनीताल में बीतती हैं। जाड़ा जिनके लिए सर्दी की तकलीफ़ नहीं लाता, बल्कि मुलायम ऊन और क़ीमती पोस्तीन से सारे बदन को ढँके इन लोगों के लिए आनन्द के सभी रास्ते खोल देता है। निठल्ले और निकम्मे ये बड़े आदमी—ज़मींदार, महाजन, मिल-मालिक, बड़ी-बड़ी तनख़्वाहों वाले नौकर, पुरोहित और दूसरी सभी प्रकार की जोंकें—किसान के कसाले की इस कमाई के भोजन का सबसे पहले हक़ रखती हैं।
मज़दूर भोंपू लगते ही आँख मलते हुए कारख़ाने की ओर दौड़ता है। अभी कुछ दिनों पहले तक तो काम के घण्टों का भी कोई निर्बन्ध न था और अब भी अधिक मज़दूरों वाले कारख़ानों पर ही वह नियम लागू है। वहाँ तीन आने और चार आने रोज़ पर वह खटता है। इसी तीन-चार आने में उसे बीबी, तीन-चार बच्चों और बूढ़े माँ-बाप की भी फ़िक्र करनी है। एक दिन भी निश्चिन्त हो पेट-भर खाना उसके लिए हराम है और उस पर से यदि वह बीमार पड़ गया तो नौकरी से जवाब। यदि बूढ़ा या अंग-भंग हो गया तो आसमान के नीचे उसको और उसके बाल-बच्चों को भीख देने वाला भी कोई नहीं। यही नहीं, कल तक कारख़ाना चौबीसों घण्टे चल रहा था, आज मालिक के पास ख़बर आती है—चीज़ों का दाम गिर गया, अब उन्हें लागत दाम पर भी बाज़ार में कोई ख़रीदने वाला नहीं है। कारख़ाने में ताला लगा दिया जाता है। मज़दूर, उसके बाल-बच्चे दाने-दाने के लिए बिलखने लगते हैं। जब उसे काम मिला था और मज़दूरी मिलती थी तब भी उसकी ज़िन्दगी नरक से बेहतर न थी और बेकारी तो ज़िन्दा ही मौत। ऐसी तकलीफ़ों को सहते मज़दूर तैयार करता है बढ़िया से बढ़िया कपड़े, चीनी, मिठाइयाँ और हज़ारों तरह की सुख-विलास की सामग्रियाँ। वह अपने हाथों से खड़ा करता है बड़े-बड़े महल, बँगले, बाग़, ठण्डी सड़कें। लेकिन ख़ुद उसके लिए क्या मिलता है? उसकी झोपड़ी शायद ही बरसात में साबित रहती हो। उसके बदन के लिए चीथड़े भी ढँकने के लिए नहीं मिलते। कितनी ही उसकी अपनी बनायी चीज़ें उसके लिए स्वप्न की-सी मालूम होती हैं और मज़दूर की हड्डियों, पसीने और चिन्ता से बनी इन चीज़ों का उपभोग कौन करता है? उनके ख़ून के गारे से उठी अट्टालिकाओं में विहार कौन करता है? वही बड़ी-बड़ी जोंकें—ज़मींदार, महाजन, मिल-मालिक, बड़ी-बड़ी तनख़्वाहों वाले नौकर, पुरोहित।
किसान और मज़दूर जिसके लिए अपनी जवानी धूल में मिलाते हैं, अपनी नींद हराम करते हैं, अपने स्वास्थ्य का सत्यानाश करते हैं, वह उन्हें भूखा-नंगा रख करके ही सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि पग-पग पर उन्हें अपमानित करना अपना कर्तव्य समझता है। किसान और मज़दूर ग़रीब क्यों हैं? क्योंकि उन्होंने अपनी कमाई परिवार और बाल-बच्चों को भूखा रखकर इन जोंकों को ख़ुशी-ख़ुशी दे दी है। उन्हीं के ख़ून से मोटी हुईं ये तोंदें ग़रीबी के लिए उन्हें लांछित करती हैं। उनकी भाषा में इन ग़रीबों के लिए अलग शब्द हैं। ‘आप’ की तो बात ही क्या, ‘तुम’ भी उनके लिए नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। ‘तू’, ‘रे’, ‘अबे’ से ही उन्हें सम्बोधित किया जा रहा है। बुरी से बुरी गालियों को उनके लिए इस्तेमाल करना अमीरी की शान है। उनके ही कारण ग़रीबी का शिकार मज़दूर और किसान उनके सामने चारपाई पर नहीं बैठ सकता, खड़ाऊँ नहीं पहन सकता, छाता नहीं लगा सकता। गाँव के किसान की इज़्ज़त और जानोमाल ज़मींदार के हाथ में है। वह जैसे चाहता है, उसे नाक रगड़ने को मजबूर करता है।
यह तो हुई वास्तविक धन के उत्पादकों की अवस्था और जोंकें? मज़दूरों और किसानों की कमाई उनके लिए अर्पित है। वे इसके सोचने की परवाह नहीं करते कि उनकी लाखों की तहसील और मुनाफ़े का रुपया किस तरह प्राप्त किया गया। क्या वे कभी यह सोचने की तकलीफ़ करते हैं कि उस एक-एक रुपये को जमा करने के लिए किसान ने अपने बच्चों को कितनी बार भूखा रक्खा? कितनी माताओं ने अपने को नंगा रक्खा? कितने बीमारों ने दवा और पथ्य से महरूम रहकर अपने प्राण छोड़े? यदि उनको ऐसा ख़याल होता तो वे कभी दो हज़ार की फ़ोर्ड कार की जगह तीस हज़ार का रोल्स-राइस ख़रीदना पसन्द न करते, महीने में हज़ार-हज़ार रुपये मोटर के तेल में न फूँक डालते। हाकिमों की दावतों और विलास के जलसों में लाखों का वारा-न्यारा न करते।
यह सब अन्धेर होते हुए भी किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। समाज के पंच कह उठते हैं, अमीर-ग़रीब सदा से चले आए हैं; अगर सभी बराबर कर दिए जाएँ तो कोई काम करना पसन्द नहीं करेगा; दुनिया के चलाने के लिए अमीर-ग़रीब का रहना ज़रूरी है। समाज की बेड़ियाँ जेलख़ाने की बेड़ियों से भी सख़्त हैं। उन्हें आँखों से देखा नहीं जा सकता, लेकिन जहाँ समाज क़ानून के ख़िलाफ़—चाहे वह क़ानून सरासर अन्याय पर ही अवलम्बित क्यों न हो—कोई बात हुई कि समाज हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है। कुएँ में पानी है, जगत पर लोटा-डोरी रखी हुई है, एक तरफ़ मन्दिर के आँगन में भक्तिभाव से झूम-झूमकर लोग रामायण पढ़ रहे हैं— “जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि के भजै सो हरि के होई।” गीता हो रही है— “विद्या विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिनः।।” (विद्या और शील-सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल सब में पण्डित लोग समदर्शी होते हैं) महात्मा और पण्डित लोग गद्गद् होकर अर्थ कर रहे हैं— “जो है सब भगवान की देन है, सियाराम मय सब जग जानी। करहु प्रणाम जोरि जुग पानी। चराचर जगत सब भगवान के रूप हैं, जो है सो उसमें कोई भेद नहीं।” मालूम होता है, चारों ओर समदर्शिता, विश्व-बन्धुत्व और प्रेम का महासमुद्र लहरें मार रहा है। उसी समय जेठ की दुपहरी में प्यास का मारा चमार आ जाता है, उसका क़दम कुएँ की ओर बढ़ता है, भक्तों में से कोई उसकी जात पहचानता है, कानाफूसी होती है, महात्मा और भक्तिरस में गद्गद सभी श्रोताओं की त्यौरियाँ चढ़ जाती हैं, आँखें लाल हो जाती हैं और सभी मानो जीते जी खा जाने के लिए उस निरपराध व्यक्ति की ओर दौड़ पड़ते हैं? उसका क़सूर क्या? क्या कुएँ से पानी पीना अपराध है? क्या समदर्शिता और विश्व-बन्धुत्व के वायुमण्डल में कुएँ से पानी निकालकर पी लेना महापाप है? और यह मण्डली कुछ ही मिनटों पहले जिस राग को अलाप रही थी, उसके रहते क्या ऐसा करना उचित था? उन व्यक्तियों में से एक-एक से अलग-अलग पूछिए— “तुम्हारे वचन और कर्म में, मन्तव्य और कर्तव्य में इतना अन्तर क्यों?” घूम-फिरकर आप इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि समाज उनसे वैसा ही कराना चाहता है।
किसी ऊँची जात के माता-पिता की एक छोटी-सी लड़की है। समाज ने मजबूर किया है कि उसकी शादी आठ-दस बरस की उम्र तक हो जाए। ग्यारहवें बरस में वह लड़की विधवा हो जाती है। समाज कहता है, उसकी शादी नहीं हो सकती, अब ज़िन्दगी भर उसे ब्रह्मचर्य से रहना और इन्द्रिय-संयम करना पड़ेगा। कैसा ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-संयम?—जिसके पालन में विश्वामित्र और पराशर, ऋष्य शृंग और व्यास जैसे बड़े-बड़े ऋषि बिलकुल असमर्थ रहे। आज भी उसी विधवा लड़की का पचास साल का बूढ़ा बाप एक स्त्री के मर जाने पर दूसरी से शादी करने को तैयार है। उसके पच्चीस वर्ष के भाई की स्त्री को मरे महीने से ज़्यादा भी नहीं हुआ, लेकिन दूसरी शादी की बातचीत तय हो रही है। क्या समाज की अक़्ल मारी गयी है? क्या उसकी आँखों पर पर्दा पड़ गया है? क्या उसे मालूम नहीं है कि इस अबोध बालिका से ज़िन्दगी भर ब्रह्मचर्य और संयम की आशा रखना दुराशा मात्र है? क्या अपने पास-पड़ोस में प्रति वर्ष एक-दो गर्भ गिरते उसने नहीं देखे? इतने पर भी क्या वह नहीं समझ सकता कि यदि उस बालिका को खुलकर पुरुष-समागम का मौक़ा नहीं दिया गया, तो वह छिपकर वैसा करेगी? खुलकर करने पर शायद वह रिश्ते और जाति का भी ख़याल करती; लेकिन छिपकर करने पर तो वह सबसे नज़दीक के सम्बन्धी के साथ भी नाता जोड़ सकती है। किसी जाति का पुरुष, जो उसे सुलभ है, उसके प्रेम का पात्र हो सकता है। इस गुप्त-प्रणय का परिणाम वह जानती है, उसके लिए मृत्युदण्ड से कम नहीं है। यदि गर्भ न गिराया जा सका, तो उसे सबसे हल्की सज़ा यही मिलेगी कि उसके माता-पिता, भाई-बन्धु, ख़ून के अत्यन्त नज़दीकी सम्बन्धी उसे किसी अनजान शहर में, किसी सुनसान जगह में, छोड़ आएँ जहाँ उसे जीवन भर वेश्यावृत्ति या उसी तरह का कोई काम करना होगा। समाज के कारण उसके भाई-बन्धु उसे ज़हर भी खिला सकते हैं, हथियार से भी मार सकते हैं। यदि गुप्त सम्बन्ध को छिपाया जा सका, तो गर्भ तो ज़रूर ही एक-दो गिराए जाएँगे। जो समाज इन सब बातों को अपनी आँखों से देखता है और इसके परिणामों को भी भली-भाँति समझता है, वह कैसे इतनी असम्भव शर्तें अभागे व्यक्तियों के सामने पेश करता है? क्या इससे उसकी हृदयहीनता स्पष्ट नहीं होती है? हर पीढ़ी के करोड़ों व्यक्तियों के जीवन को इस प्रकार कलुषित, पीड़ित और कण्टकाकीर्ण बनाकर क्या वह अपनी नर-पिशाचता का परिचय नहीं देता? ऐसे समाज के लिए हमारे दिल में क्या इज़्ज़त हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है? बाहर से धर्म का ढोंग, सदाचार का अभिनय, ज्ञान-विज्ञान का तमाशा किया जाता है और भीतर से यह जघन्य, कुत्सित कर्म! धिक्कार है ऐसे समाज को!! सर्वनाश हो ऐसे समाज का!!!
जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पल-भर भी बर्दाश्त करना चाहिए? एक ग़रीब माता-पिता हैं। उनको ख़ुद न अपने खाने-पीने का ठिकाना है, न पहनने-ओढ़ने का। उनके घर में एक असाधारण प्रतिभाशाली बालक पैदा होता है। लड़कपन से ही उसे किसी धनी के बच्चे को खेलाना पड़ता है, भेड़-बकरियाँ चराकर पेट पालने के लिए मजबूर होना पड़ता है। माँ-बाप जानते तक नहीं कि लड़के को पढ़ाना-लिखाना भी उनका कर्तव्य है। यदि वे जानते भी हैं, तो न उसके पास फ़ीस देने के लिए पैसा है, न किताब के लिए दाम। लड़का बड़ा होता है, बूढ़ा होता है, मर जाता है और साथ ही अपने साथ प्रतिभा को लिए जाता है जिसके द्वारा वह देश को एक चाणक्य, एक कालीदास, एक आर्यभट्ट, एक रवीन्द्र, एक रमन दे सकता था। मैंने गाँव के एक अभिनेता को देखा है। यदि वह किसी ऐसे देश में पैदा हुआ होता जहाँ प्रतिभाओं के आगे बढ़ने के सारे रास्ते खुले हैं, तो वहाँ वह प्रथम श्रेणी का जगद्विख्यात अभिनेता होता। लेकिन, आज साठ बरस की अवस्था में इस अशिक्षित व्यक्ति की वह महान प्रतिभा ग्रामीण स्त्री-पुरुष-जीवन के कुछ सजीव चित्रण द्वारा अपने परिचितों का कुछ मनोरंजन मात्र कर सकती है। मैंने ऐसे स्वाभाविक कवि देखे हैं जिन्हें अक्षर का कोई भी ज्ञान नहीं। जिस भाषा को बोलते हैं, उनमें कोई लिखित साहित्य नहीं, कोई आचार्य-परम्परा नहीं, छन्द और अलंकार के परिचय का कोई साधन नहीं, तब भी अपनी भाषा में वे बहुत ही भावपूर्ण, रसपूर्ण कविता कर सकते हैं। शिक्षित जन उनकी कविता को, गँवारू कहकर निरादर करते हैं और इसके कारण वे ख़ुद भी उसे वैसा ही समझते हैं। कवित्व के लिए बाहर से न उन्हें कोई प्रेरणा मिलती है, न प्रोत्साहन, सिर्फ़ अन्तःप्रेरणा से मजबूर होकर वे कभी-कभी कुछ गा लेते हैं। मैं गाँव के एक लड़के के बारे में जानता हूँ। उसकी माँ विधवा है। नाममात्र का थोड़ा-सा खेत पुत्र और माता की जीविका का साधन है। लड़का गाँव की पाठशाला में पढ़ने बैठा। असाधारण मेधावी, गणित में विशेष निपुण। प्राइमरी-स्कूल में उसे छात्रवृत्ति मिली जिसकी सहायता से उसने मिडिल पास किया। वहाँ भी उसने छात्रवृत्ति पायी। यद्यपि पर्याप्त न थी, तो भी किसी तरह वह अपनी पढ़ाई को जारी रख सकता था। मैट्रिक में युक्त प्रान्त से उत्तीर्ण होने वाले कई हज़ार छात्रों में उसका नम्बर दूसरा या तीसरा था। किन्तु जो एक या दो छात्र उसकी अपेक्षा अधिक नम्बर से पास हुए थे, वे धनियों के लाड़ले थे। उनके ऊपर दो-दो, तीन-तीन अध्यापक घर में अलग रखे गए थे। उन्हें हमारे उक्त तरुण की तरह खाने-पीने की चिन्ता न थी। अबकी बार फिर उसे छात्रवृत्ति मिली। वह कॉलेज में पढ़ने लगा। फ़िजिक्स, केमिस्ट्री और गणित उसके विषय थे। छात्रवृत्ति पर्याप्त न थी। इधर स्वास्थ्य भी इतना अच्छा न रहा। उस पर से एक देहाती जगह से आकर तीव्र विद्यार्थियों के लिए मशहूर एक विश्वविद्यालय में उसने नाम लिखाया था। यहाँ छात्रवृत्तियाँ कम थीं। संयोग से एक ही छात्रवृत्ति के लिए तीन विद्यार्थियों के नम्बर बराबर आ गए। छात्रवृत्ति किसको मिलनी चाहिए, इसका निर्णय करते वक़्त विश्वविद्यालय ने ऐसे दो विषय ले लिए, जिनमें एक और ही छात्र—जो कि एक धनाढ्य की सन्तान था—के एक-दो नम्बर अधिक हो गए। किसी ने इसकी परवाह न की कि उस तरुण की प्रतिभा—जो घोर दरिद्रता में जन्म लेकर भी कितनी कठिनाइयों को पारकर यहाँ तक पहुँची थी—का भविष्य क्या होगा? मुझे उस तरुण से साल भर बाद मिलने का मौक़ा मिला। मैंने देखा—उसका चेहरा थाइसिस के रोगी जैसा हो गया है। बदन बहुत दुबला-पतला। मैंने कारण पूछा। तरुण ने बहाना बना लिया। उसके चले जाने पर दूसरे साथी ने बतलाया— “उसे इस साल छात्रवृत्ति नहीं मिली। बहुत कहने-सुनने पर फ़ीस माफ़ हो गयी। खाने-पीने के लिए उसने ट्यूशन पाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन न मिला। एक-दो दोस्त अपने साथ रखने का आग्रह करते थे, लेकिन इसे वह अपने आत्मसम्मान के ख़िलाफ़ समझता था।” दूसरे दिन अपनी जानकारी को जतलाते हुए मैंने जब तरुण से पूछा तो उसने उत्तर दिया— “हाँ ठीक है। मैंने ट्यूशन के लिए बहुत कोशिश की, कॉलेज के घण्टों को समाप्त करके मैं घण्टों इसी फेर में घूमता रहा। लेकिन कहीं कुछ होते-हवाते न देख मैंने उसे अब छोड़ दिया है।” जिस वक़्त मुझे उस प्रतिभाशाली तरुण की इस उपेक्षा को देखने का मौक़ा मिला और यह भी सुना कि वह सिर्फ़ एक बार थोड़ी-सी खिचड़ी खाकर गुज़ारा करता आ रहा है, तो सच बताऊँ मेरी आँखों में ख़ून उतर आया। मुझे ख़याल आता था—ऐसे समाज को जीने देना पाप है। इस पाखण्डी, धूर्त, बेईमान, ज़ालिम, नृशंस समाज को पेट्रोल डालकर जला देना चाहिए।
एक तरफ़ प्रतिभाओं की इस तरह अवहेलना और दूसरी तरफ़ धनियों के गदहे लड़कों पर आधे दर्ज़न ट्यूटर लगा-लगाकर ठोक-पीटकर आगे बढ़ाना। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके दिमाग़ में सोलहों आने गोबर भरा हुआ था, लेकिन वह एक करोड़पति के घर पैदा हुआ था। उसके लिए मैट्रिक पास करना भी असम्भव था। लेकिन आज वह एम.ए. ही नहीं है, डाक्टर है। उसके नाम से दर्ज़नों किताबें छपी हैं। दूर की दुनिया उसे बड़ा स्कॉलर समझती है। एक बार ‘उसकी’ एक किताब को एक सज्जन पढ़कर बोल उठे— “मैंने इनकी अमुक किताब पढ़ी थी। उसकी अंग्रेज़ी बड़ी सुन्दर थी; और इस किताब की भाषा तो बड़ी रद्दी है?” उनको क्या मालूम था कि उस किताब का लेखक दूसरा था और इस किताब का दूसरा।
प्रतिभाओं के गले पर इस प्रकार छूरी चलते देखकर जो समाज खिन्न नहीं होता, उस समाज की ‘क्षय हो’, इसको छोड़ और क्या कहा जा सकता है।
राहुल सांकृत्यायन का लेख 'दिमाग़ी ग़ुलामी'