तुम्हारी असलियत की संगदिल ख़ूँख़ार छाती पर
हमारी असलियत बेमौत हावी है।
तुम्हारी मौत आयी है
हमारे हाथ से होगी,
सुलगते रात में जंगल, लपट-से लाल,
गहरा लाल काला आसमाँ भी है
कि जिससे धुल उठे मैदान
जिससे खिल गए इंसान के चेहरे
कि जिससे रंग गईं सड़कें
हमारे नूर का तड़का
ज़मीं का पासबाँ भी है
सहर-सा फूल उठता है सियाही में
हमारी ज़िन्दगी का दहकता ईमान
गहरा इंक़िलाबी है।
तुम्हारी रात के जंगल (जहाँ ख़ूँख़ार चीते हैं
जहाँ ख़ुदग़र्ज़ियों के ज़ुल्म के भालू
जहाँ इंसान के दुश्मन भयानक भेड़ियों की फ़ौज फिरती है
हमारे ख़ून की प्यासी शिकारी सिपहसालारी
जहाँ सरमायादारी के विषैले साँप का फुफकारता है फन
जहाँ आराम से खाते
किसी का माँस बूढ़े गिद्ध
जैसे ब्याज पर ही सिर्फ़ जीते हों)
तुम्हारी रात का जंगल हमारी आग में जलकर
जहन्नुम ख़ाक होगा ही
तुम्हारी मौत आयी है
दरिन्दो, अब तुम्हारी वारदातें, आफ़तों के जलजलों में
उघड़ उठती, चीख़ उठती हैं।

हमारा गाँव जागा है,
हमारा शहर जागा है, अरे! शैतान के पिल्लो!
हमारे घरों से उठकर ये कड़ुए धुएँ के घेरे
भयानक चक्करों में बाँध तुमको फेंक देंगे ही
सियाही के, तबाही के समुन्दर में
जहाँ से (डूबकर) फिर उठ नहीं सकते!
इंसान के दुश्मन!
हुए नाख़ून फ़ौलादी तुम्हारे सेलुलाइड के
ज़मीं पर हर तरफ़ चक्कर लगाते खोज के
ख़ूँरेज़ ख़ाकी भूत बेचारे
पुराने चीड़ के कमज़ोर खोखे के।
तुम्हारी नाल की आवाज़—
(वह नाराज़ बूटों की) सुबकती है उफ़क़ के साँवलेपन में।
बही बारूद की बदबू तुम्हारे जिस्म पर बहते पसीने से
उठी है थामकर दीवाल पस्ती की, गिरस्ती की।
मुआ घोड़ा बड़ी बेचैन बन्दूक़ों तमंचों का
मुरझकर ज़ंग खाकर रह गया अकड़ा।
लिहाज़ा ख़ुदकुशी बाक़ी।
तुम्हारी मौत आयी है।
रगों की गटर में अब तारकोली स्याह
मैला ख़ून बहता है,
कि चट्टानी तुम्हारा दिल
हुआ दलदल, हुआ दलदल
सुबकती स्याह हस्ती का, बड़ी नाराज़ पस्ती का।
तुम्हारा उलटकर बुर्क़ा, सितारों ने बड़े ही ध्यान से देखा
तुम्हारी ये निगाहें लाल औ’ ख़ूँख़ार हों, लेकिन
भटकती और भेंगी हैं।
हमारे छप्परों में फूस के भूरे
लगा दी आग जो तुमने
तुम्हारी मौत की लपटें हुईं दिल में ज़माने के
उसी से सुर्ख़ है सूरज
उसी की धधकती किरनें बनी हैं धूप दिन की यह।
तुम्हारी ताक़तों की वर्दियाँ ख़ाकी सुलगती हैं
हमारी तेज़ गरमी से
संगीनें बिचारी टूट जाएँगी अखीरी एक झटके में
तुम्हारी नीम-जाँ तक़दीर की लाली
थकी जमुहाइयाँ लेती
उसे अब नींद आएगी
बड़ी ख़ामोश बेहोशी रहेगी और छाएगी
तुम्हारी मौत आयी है, हमारे हाथ से होगी।

मुक्तिबोध की कविता 'तुम्हारा पत्र आया'

Book by Muktibodh:

गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४) हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।