मैंने एक उदासीन गीत लिखना चाहा है,
तुम पढ़ोगे? तुम कहोगे, “गीत तो अनुराग भरा भी लिख सकती थी तुम…”,
तो मैं कहूंगी, “हाँ लिख तो सकती थी, पर मैं केवल लिखना नहीं चाहती, मैं उकेरना चाहती हूँ” तुम पूछोगे, “किस चीज़ को?” तो मैं कहूंगी, “उस मौन को जो एक पुरानी हवेली की नई खिड़की से बारिश की बूंदों को नृत्य करते देखता रहता है। वह जानता है कि उसे प्रेम है, पर आदी है घर में बिखरी उदासी का।
बारिश तो अंततः लौट ही जाती है, और छोड़ जाती है पतझड़ का विरक्त एकाकीपन, और रह जाती है तो वही पुरानी बिखरी उदासी।
तुम ढूँढना! बर्फ़ की मौनता की परतों के नीचे तुम्हें मिलेगी ठंडी उदास देह।
तुम छू लेना उसे, सहलाना उसे बड़े प्रेम से, उसके बालों को, उसके नीले पड़े होठों को, उसके सुकड़े स्तनों को, चूम लेना उसकी पीठ पर उकेरी गई उस विचित्र लिपि को, लिखना उंगलियों से कोई कविता उसके नितम्बों पर, बोना गुलमोहर के फूल जांघो की मिट्टी के अंदर, तुम्हें मालूम पड़ेगा कि मौनता की परतों के नीचे बैठी उस उदास ठंडी देह के भीतर पकेंगे मीठे-मीठे फूल। तुम तोड़ लेना उन्हें, चाहो तो तोड़ लेना एक पूरा गुलदस्ता, और सजा लेना उन्हें अपने कमरे के किसी फूलदान में। मुरझा कर जब वह अंतिम श्वास ले लें, तुम उकेर देना उन्हें किसी दीवाल पर, तुम्हें रह-रह कर याद आएगा उस उदासीन नंगी देह पर उकेरा हुआ स्निग्ध मौन।