‘Umr Ke Sath Sath’, a poem by Nirmal Gupt

उम्र चेहरे तक आ पहुँची
कण्ठ में भी शायद
जिह्वा पर अम्ल बरक़रार है
शेष है अभी भी हथेलियों पर स्मृतियों की तपन
वक़्त के साथ सपने भस्माभूत नहीं होते
काफ़ी बीत जाने पर भी
कुछ है यक़ीनन कभी नहीं बीतता

देह बीत जाती है
रीत जाता है भीतर का पानी
इतने रूखेपन में भी
जरा-सा गीलापन ढूँढकर
बची रह जाती है
चिकनी हरी काई और
निर्गंध बैंगनी गुलाबी अवशेष

उम्मीद आज जीवंत सर्वनाम है
कामनाएँ कल की पुरकशिश संज्ञा
कविताओं में अभी तक
शब्दों की आड़ में दिल थरथराता है
तितलियों के पीछे भागता बचपन
वक़्त के संधिस्थल पर
मचाता है अजब धमाचौकड़ी

समय की अँगुली पकड़
चलते-चलते हम निकल आये
कितनी दूर
पतझड़ के मौसम में झड़ी पत्तियाँ
बहार की आमद पर करती हैं
बदलती रुत के साथ कानाबाती।

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Book by Nirmal Gupt:

निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]